पर्यावरण व पारिस्थितिकी तंत्र - अध्ययन सामग्री १ - ऊर्जा एवं भारत में ऊर्जा संरक्षण - सिविल्स तपस्या पोर्टल

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मानवता किस प्रकार ऊर्जा का इस्तेमाल करेगी, और अपने कार्बन उत्सर्जन का प्रबंधन करेगी, ये आधुनिक विश्व में पर्यावरण संरक्षण क्षेत्र का सबसे मूल मुद्दा है। पारिस्थितिकी तंत्र और पर्यावरण की समझ हेतु हमें पहले अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं, व्यवस्थाओं और चुनौतियों को समझना होगा।

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A. 
औद्योगिक क्रांति और ऊर्जा का उपभोग 

A.1 प्रस्तावना

18वीं सदी के अंत में शुरू हुई औद्योगिक क्रान्ति के कारण मानव इतिहास में एक निर्णायक मोड़ आया। इसने तत्कालीन समय की सामजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों को गहरे तक प्रभावित किया। औद्योगिक क्रांति का एक उल्लेखनीय प्रभाव शारीरिक श्रम और पशु आधारित अर्थव्यवस्था के मशीनीकृत उत्पादन द्वारा प्रतिस्थापन के रूप में हुआ, जिसके परिणामस्वरूप ऊर्जा की आवश्यकताओं में अत्यधिक वृद्धि हुई। उस समय ऊर्जा के उपलब्ध संसाधनों में सौर ऊर्जा, जलविद्युत ऊर्जा और पवन ऊर्जा शामिल थे। ऊर्जा के ये सभी अक्षय स्रोत अनाशवान हैं, किंतु उस समय की उपलब्ध तकनीकें इन स्रोतों से पर्याप्त ऊर्जा का दोहन करने में असमर्थ थीं। इसीलिए ऊर्जा के नए स्रोतों की खोज आवश्यक हो गई जो उद्योगों को पर्याप्त ऊर्जा की आपूर्ति करने में सक्षम हों। इसका परिणाम कोयले और अंततः तेल एवं प्राकृतिक गैस की खोज में हुआ। ये जीवाश्म ईंधन हैं, उन पौधों और पशुओं के उत्पाद जो करोडों वर्षों पूर्व पृथ्वी में गहरे दबे थे।

मानवता किस प्रकार ऊर्जा का इस्तेमाल करेगी, और अपने कार्बन उत्सर्जन का प्रबंधन करेगी, ये आधुनिक विश्व में पर्यावरण संरक्षण क्षेत्र का सबसे मूल मुद्दा है। पारिस्थितिकी तंत्र और पर्यावरण की समझ हेतु हमें पहले अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं, व्यवस्थाओं और चुनौतियों को समझना होगा।


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A.2 भारत में स्थापित विद्युत क्षमता 


चूंकि जीवाश्म ईंधन आसानी से खनन से प्राप्त हो जाते हैं, और विद्युत उत्पादन हेतु आसानी से इस्तेमाल में आ जाते हैं, अतः कुछ वर्षों पूर्व तक ऊर्जा मिश्रण में इनका प्रभुत्व बना हुआ था। किन्तु जब गंभीर जलवायु परिवर्तन की चिंताएं सताने लगीं, तो अनेक देशों ने मिलकर ऊर्जा मिश्रण में परिवर्तन हेतु सोचना प्रारम्भ किया। २०१५ /१६ का पेरिस जलवायु समझौता ऐसे सहयोग का एक उत्कृष्ट उदाहरण था। नीचे देखें अखिल भारतीय स्थापित विद्युत् क्षमता के आंकड़े। इस तालिका से स्पष्ट होगा कि मानवता की आवश्यकताओं हेतु जीवाश्म ईंधनों का कितना अधिक उपयोग हुआ है।

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पिछली सदी में उद्योगों और वाहनों में जीवाश्म ईंधन के बढ़ते उपयोग ने वायु प्रदूषण, ओजोन के घटते स्तर और वैश्विक स्तर पर गर्मी में होने वाली वृद्धि के रूप में गंभीर समस्याएँ निर्माण की हैं। पिछली सदी की दूसरी चैथाई में वैकल्पिक ऊर्जा की खोज का परिणाम अंततः परमाणु ऊर्जा की खोज में हुआ।

हालाँकि, जीवाश्म ईंधन आज भी पूरे विश्व में व्यावसायिक ऊर्जा का प्रमुख स्रोत बने हुए हैं। उपलब्ध ऊर्जा स्रोतों को हम दो श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं - अक्षय संसाधन और नाशवान संसाधन।


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B.   नाशवान ऊर्जा संसाधन (अनवीकरणीय संसाधन)

नाशवान ऊर्जा संसाधन (Non renewable energy resources) लाखों, करोडों वर्षों पूर्व विशेष परिस्थितियों में निर्मित हो गये थे, व चूंकि वे परिस्थितियाँ आज पुनः निर्मित नहीं की जा सकतीं हैं, अतः ये संसाधन भी आज पुनर्निर्मित या उत्पादित नहीं किये जा सकते हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है, कि इनके उपभोग से इनमें तेजी से कमी आती जा रही है, और वह दिन दूर नहीं है जब हमारे पास इस प्रकार के संसाधन पूरी तरह से समाप्त हो जाएंगे। इसीलिए उन्हें नाशवान ऊर्जा संसाधन कहा जाता है। इसीलिए हमारे लिए यह अत्यंत आवश्यक और महत्वपूर्ण है कि हम उनका संरक्षण करना सीख लें। इस प्रकार के ऊर्जा संसाधनों में मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन और परमाणु ईंधन आते हैं।


   
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B.1 कोयला

कोयला दुनिया का सर्वाधिक मात्रा में पाया जाने वाला जीवाश्म ईंधन है। यह पुरातन काल का एक पौधों (लकड़ीजन्य पेड़ों) द्वारा निर्मित उत्पाद है, जो लाखों वर्षों पहले (300-400 मिलियन वर्ष) पृथ्वी में गहरे दब गए थे। पृथ्वी के अंदर की अत्यधिक गर्मी और दाब ने इन पौधों के अवशेषों में से पानी और गैसें निचोड़ कर बाहर कर दिए और इस संपीडन ने इन अवशेषों को कोयले का स्वरुप दे दिया। इसमें मौजूद मुख्य तत्वों में कार्बन और थोडी मात्रा में सल्फर, व पारे के कुछ अंश और रेडियोधर्मी पदार्थ शामिल हैं।

कोयले के मुख्य रूप से तीन प्रकार हैं - अंगाराश्म, डामरी और लिग्नाइट, जिनमें से अंगाराश्म इसकी उच्च ताप क्षमता और कम सल्फर सामग्री के कारण सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता का माना जाता है। (अंगाराष्म त्र एन्थ्रसाईट, डामरी त्र बिट्युमिनस)

संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन में दुनिया के 50 प्रतिशत से अधिक के कोयले के भण्डार हैं। 7 प्रतिशतभंडारों के साथ इस सूची में भारत का क्रमांक चैथा है, और देश की कुल ऊर्जा आवश्यकता के 50 प्रतिशत की आपूर्ति कोयले द्वारा होती है। देश में कोयले के मुख्य उपभोक्ता विद्युत संयंत्र और लौह और इस्पात उद्योग हैं।

जलता हुआ कोयला, इसमें उपलब्ध सल्फर, पारे के अंश और रेडियोधर्मी पदार्थों के कारण पर्यावरण प्रदूषकों में सबसे खराब है। कोयले के जलने से उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड विश्व के वार्षिक उत्सर्जन के 30 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है, जिसके परणामस्वरूप ग्रीन हाउस प्रभाव और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएँ निर्माण हुई हैं।


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अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र, अहमदाबाद (इसरो की एक इकाई) की 2190 हिमालयन हिमनदों पर किये गए अध्ययनों की एक की रिपोर्ट (2011) बताती है कि 75 प्रतिशत हिमनद स्थान छोड़ रहे हैं, अर्थात् पीछे हट रहे हैं (रिट्रीट) जो एक चिंता का विषय है, हालाँकि यह उतना चैंकाने वाला नहीं है जितना पहले (2007 में) माना गया था। 

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B.2 तेल और गैस

कोयले की तरह ही तेल और प्राकृतिक गैस भी जीवाश्म ईंधन हैं, परंतु ये छोटे पौधों (पादप प्लवक) और पशुओं के उत्पाद हैं, जो तालाबों और महासागरों के तलछटों में लाखों वर्षों पूर्व दब गए थे (उस समय पृथ्वी का अधिकांश भाग जलमग्न था)। इसीलिए तेल (पृथ्वी के अंदर से निकलने के कारन इसे क्रूड तेल कहा जाता है) और प्राकृतिक गैस एक साथ, गहराई में जमीन पर पृथ्वी के नीचे अभेद्य चट्टानों के गुंबद के नीचे या समुद्र तल के नीचे पाये जाते हैं।




क्रूड तेल सैकड़ों ज्वलनशील हाइड्रोकार्बन युक्त (कार्बन और हाइड्रोजन से बने जैविक यौगिक) गाढ़ा द्रव्य होता है। व इसमें आॅक्सीजन, सल्फर व नाइट्रोजन के यौगिक भी मिले होते हैं। क्रूड तेल जमीन के अंदर चट्टानों के छिद्रों और दरारों में फैला होता है और इसे ड्रिल करके बाहर निकाला जाता है। ड्रिलिंग से क्रूड चट्टानों के छिद्रों और दरारों से गुरुत्वाकर्षण के ज़ोर से बाहर निकलता है और तेल कुओं के तल में जमा हो जाता है, जहाँ से इसे रिसाव द्वारा पम्पों की मदद से बाहर निकाला जाता है। यहाँ से इसे पाइपलाइन, ट्रकों, जहाजों इत्यादि द्वारा तेल रिफाइनरियों (षोधन-संयंत्रों) में भेजा जाता है, जहाँ इसे शुद्ध करके डीजल, पेट्रोल, विमानन ईंधन, और अन्य जैसे  अलग-अलग भागों में बांटा जाता है। हमारी अधिकाँश सार्वजनिक और निजी परिवहन सेवाएँ पेट्रोलजन्य पदार्थों पर निर्भर हैं। तेल आसवन (पेट्रोरसायन) से प्राप्त कुछ रसायन औद्योगिक जैविक रसायन, प्लास्टिक्स, सिंथेटिक फाइबर, रंग, कीटनाशकों, औषधियों और अन्य उत्पादनों में कच्चे माल के रूप में उपयोग में लाये जाते हैं।

सऊदी अरेबिया में सर्वाधिक तेल भण्डार हैं (विश्व के कुल तेल भण्डारों के 25 प्रतिशत), इसके बाद इराक (11 प्रतिशत), संयुक्त अरब अमीरात, (9.3 प्रतिशत), कुवैत (9.2 प्रतिशत) और ईरान (8.5 प्रतिशत) आते हैं। पेट्रोलियम निर्यात करने वाले 11 देशों के पास विश्व के अनुमानित तेल भण्डारों के 78 प्रतिशत भण्डार हैं। उन्होंने एक पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन (ओपेक) स्थापित कर लिया है, जो विश्व की तेल की कीमतों को नियंत्रित करता है। ये देश हैं सऊदी अरेबिया, इराक, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, ईरान लीबिया, इंडोनेशिया, नाइजीरिया, क़तर, अल्जीरिया और वेनेजुएला।





B.3 प्राकृतिक गैस

प्राकृतिक गैस हलके हाइड्रोकार्बनों का मिश्रण है, जिसमें मीथेन (सीएच4) मुख्य घटक है। (50 से 90 प्रतिशत)। अन्य घटक हैं ईथेन (सी2एच6), प्रोपेन (सी3एच8), ब्यूटेन (सी4एच10) और पेंटेन (सी5एच12), इसके साथ ही थोड़ा अंश हाइड्रोजन सल्फाइड (एच2एस) का होता है जो बहुत विषैला होता है।

प्राकृतिक गैस के भण्डार अधिकांश क्रूड तेल के भण्डारों की ऊपरी सतह पर पाये जाते हैं, और तेल की ही तरह इसे भी ड्रिल करके निकाला जाता है। 31 प्रतिशत भण्डारों के साथ रूस के पास प्राकृतिक गैस के सर्वाधिक भण्डार हैं, इसके बाद, ईरान (15 प्रतिशत), कतर (9 प्रतिशत), सऊदी अरेबिया (4 प्रतिशत), और संयुक्त अरब अमीरात, (4 प्रतिशत) आते हैं।

प्राकृतिक गैस सर्वाधिक स्वच्छ जीवाश्म ईंधन है, क्योंकि ऊर्जा के लिए जलने पर यह तुलनात्मक दृिष्ट से बहुत कम मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करते हैं, और इससे उत्सर्जित विषैली गैसों, जैसे नाइट्रस ऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड की मात्रा भी बहुत कम होती है।

द्रवरूप पेट्रोलियम गैस (एलपीजी) : यह क्रूड को परिष्कृत करते समय या प्राकृतिक गैस को प्रसंस्करित करते समय निकलती है। यह प्राकृतिक गैस के भारी तत्वों, अर्थात् प्रोपेन और ब्यूटेन के मिश्रण से बनती है। एक स्वछ ईंधन होने के कारण गर्म करने और वाहनों के ईंधन के रूप में इसका उपयोग बढ़़ता जा रहा है। ओजोन परत को होने वाले नुकसान से बचाने के लिए यह क्लोरो फ्लुओरोकार्बंस की जगह, एक एयरोसोल प्रणोदक और एक सर्द के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। यह एक बिना-गंध गैस है, अतः लीकेज का पता लगाने के लिए इसमें एक गंधयुक्त पदार्थ एथनेथोल का मिश्रण किया जाता है।

संपीडित प्राकृतिक गैस (सीएनजी) : यह भी एक जीवाश्म ईंधन है, किंतु पर्यावरण की दृिष्ट से अन्य ईंधनों की तुलना में, विशेषतः डीजल की तुलना में, अत्यंत स्वच्छ ईंधन है, जिसका उपयोग परिवहन वाहनों में किया जा रहा है।

एलपीजी के विपरीत यह द्रवरूप नहीं है, पर यह सामान्य वायुमंडलीय दबाव में जितना आयतन घेरती है उससे 1 प्रतिशत से कम मात्रा में संपीडित की जाती है। इसमें मुख्य रूप से मीथेन होता है। यह 200-248 बार दाब पर कठोर इस्पात कंटेनर्स में संग्रहित और वितरित की जाती है। दिल्ली में बसों में सीएनजी का उपयोग अनिवार्य करने के परिणामस्वरूप वहां का वायुमंडलीय प्रदूषण काफी कम हो गया है।


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B.4 परमाणु ऊर्जा

ऊष्मप्रवैगिकी (Thermodynamics) के नियमों के अनुसार पदार्थ और ऊर्जा का ना तो निर्माण किया जा सकता है और ना ही इसे नष्ट किया जा सकता है, केवल उनके स्वरुप बदलते हैं। आइंस्टीन के प्रसिद्ध समीकरण (ई=उब2) द्वारा समझाया गया है कि एक द्रव्य के प्रमाण में ऊर्जा द्रव्यमान (एम) गुणा प्रकाश के वेग के वर्ग (2.998 ग्108 मीटर/सेकंड) के बराबर होती है। यह द्रव्य के अणु में फंसी जबरदस्त ऊर्जा की मात्रा होती है। यह अमेरिकी सेना द्वारा दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हिरोशिमा और नागासाकी के शहरों पर अगस्त 1945 में गिराये गए आण्विक बमों से सिद्ध हो गया था। 

अधिकांष विश्व को एहसास हुआ कि यदि इसे मानव के कल्याण के लिए इस्तेमाल किया गया, तो यह संसार की सभी ईंधन समस्याओं को हल कर सकती है। एक अनुमान से यह सिद्ध हो गया कि एक टन आण्विक ईंधन से दो से तीन मिलियन टन जीवाश्म ईंधन जितनी ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकता है।

सभी पदार्थ अणुओं से बने होते हैं, और अणु नाभिकियों से बने होते हैं जिसमे इलेक्ट्रॉनों से घिरे हुए प्रोटॉन और न्यूट्रॉन होते हैं, जो सौर मंडल में सूर्य के चारों ओर घूमने वाले ग्रहों की तरह नाभिकीय के चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं।

विश्व में सभी जगह अधिकांश आणविक रिएक्टर आणविक ईंधन के अणुओं के विखंडन के सिद्धांत पर कार्य करते हैं, जो श्रृंखला प्रतिक्रिया शुरू करके जबरदस्त ऊष्मा और प्रकाश पैदा करते हैं। जब इसे धीरे-धीरे छोड़ा जाता है तो यह ऊर्जा विद्युत उत्पादन के लिए इस्तेमाल की जा सकती है।

1950 के दशक में व्यवसायिक उद्देश्यों के लिए आणविक ऊर्जा के उपयोग के प्रति काफी उत्साह था क्योंकि यह न केवल बहुत सस्ती प्रतीत होती थी, बल्कि उपयोग किये जा रहे जीवाश्म ईंधन, जो वातावरण को काफी प्रदूषित कर रहे थे, उनकी  तुलना में काफी स्वच्छ भी थी। वास्तव में, अमेरिकी राष्ट्रपति डी. आॅइजनहावर ने दिसम्बर 1953 में ‘‘शांति के लिए अणु‘‘ कार्यक्रम की घोषणा की थी, और 1954 में अमेरिकी आणविक ऊर्जा समिति (एईसी) के अध्यक्ष लूईस एल. स्ट्रॉस ने घोषित किया कि आणविक शक्ति बिजली को ‘‘मीटर के लिहाज से बहुत ही सस्ती बना देगी‘‘। शोधकर्ताओं ने उस समय आंकलन किया था कि वर्ष 2000 तक कम से कम 1800 आणविक विद्युत केंद्र विश्व की 21 प्रतिशत व्यावसायिक ऊर्जा और विश्व की अधिकांश ऊर्जा की आपूर्ति करेंगे।

हालाँकि, ये अनुमान सत्य सिद्ध नहीं हो सके क्योंकि परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने की लागत बहुत अधिक है, और इससे निकलने वाले रेडियोधर्मी विकिरणों से, दुर्घटना की सूरत में सभी सुरक्षा उपायों के बावजूद गंभीर स्वास्थ्य खतरे उत्पन्न हो सकते हैं जैसा कि पेनसिलवेनिया के थ्री माइल्स आइलैंड संयंत्र में (1979) और तत्कालीन सोवियत संघ के यूक्रेन के चेर्नोबील परमाणु ऊर्जा संयंत्र में (1986) हुई दुर्घटनाओं ने दिखा दिया है। हाल ही में जापान में आये भूकंप और उसके बाद की सुनामी के बाद फुकुशिमा और क्वागामा के परमाणु रिएक्टरों में हुए विस्फोटों और आग ने लोगों के डर को और भी मजबूत कर दिया है। प्रयुक्त ईंधन, जो अत्यधिक रेडियोधर्मी  होता है, का निपटान भी एक गंभीर समस्या है।

परमाणु ऊर्जा की ये सारी असुविधाएँ इसे भविष्य के लिए एक आदर्श विकल्प नहीं बनाती। इसे एक गैर-अक्षय ऊर्जा संसाधन भी माना गया है, क्योंकि आणविक ईंधन (यूरेनियम, प्लूटोनियम और थोरियम) के भण्डार अक्षय नहीं हैं।


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C. अक्षय ऊर्जा संसाधन

C.1 प्रस्तावना

सौर ऊर्जा, पनबिजली ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा, पवन ऊर्जा और बायोमास से प्राप्त ऊर्जा अक्षय ऊर्जा संसाधन हैं। चूंकि ये कभी समाप्त नहीं होते (कम से कम मानव जीवन काल में तो नहीं), इसलिए इन्हें प्रचुर और 'अनंत' माना जाता है। 

C.2 सौर ऊर्जा



लगभग 4.54 बिलियन वर्ष पूर्व पृथ्वी की उत्पत्ति के समय से सूर्य पृथ्वी के लिए ऊर्जा का सबसे प्रमुख साधन और स्वयं जीवन के लिए एक प्राथमिक शक्ति रहा है। वास्तव में, सूर्य से प्राप्त ताप ऊर्जा (सौर ऊर्जा) ही पृथ्वी को इतनी ऊष्मा प्रदान करती है जिससे पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व बना हुआ है। इस ऊर्जा के बिना, पृथ्वी का औसत तापमान -200 डिग्री सेल्सियस होता, जिसमें जीवन संभव नहीं था।

हम अपने सम्पूर्ण वैज्ञानिक ज्ञान के साथ आज जो करने के लिए संघर्शरत हैं, पौधों ने उस सौर ऊर्जा का इस्तेमाल करना करोड़ों वर्षों पहले ही सीख लिया था!

पौधे जो प्रकाश (सौर ऊर्जा) ग्रहण करते हैं, वह प्रकाश संश्लेषण करने के काम आता है, जो सम्पूर्ण पृथ्वी पर जीवन बनाये रखता है। इसी प्रकार पौधे इस ऊर्जा का उपयोग धरती से पानी और खनिज पदार्थ पौधे के विभिन्न अंगों तक परिवहन करने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं।

मनाव समाज सौर ऊर्जा का उपयोग इतिहास-पूर्व काल से करता चला आ रहा है, पर बहुत कौशलय से नहीं। जब हम अपने गीले कपडे़ खुले क्षेत्रों में लटकाते हैं, तो हम सौर ऊर्जा का ही तो इस्तेमाल कर रहे होते हैं।

अब, जीवाश्म ईंधन की बढ़़ती कीमतों के कारण और उनके उपयोग से होने वाले दमघोंटू प्रदूषण के कारण हमने घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिए पानी गरम करने के लिए सौर ऊर्जा को अवशोषित करने के लिए सौर पैनल प्रकल्पित किये हैं। खाना पकाने के लिए हमारे पास सौर कुकर हैं और हमने फोटोवोल्टिक सेल विकसित किये हैं, जो सौर ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदल देते हैं, जो हमारे घरों, मोहल्लों और यहाँ तक कि गाँवों को भी प्रकाशित करने के लिए इस्तेमाल हो रहे हैं।

२०१७ में जारी सरकारी आंकड़े 



सामाजिक कार्यकर्ता अण्णा हजारे का गाँव रालेगण सिद्धि सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और बायोगैस जैसे अक्षय ऊर्जा (गैर-पारंपरिक) के संसाधनों के इस्तेमाल के साथ पूरे देश के लिए रोल मॉडल बन गया। वहां की सारी गलियां सौर ऊर्जा से प्रकाशमान होती हैं, जिनके प्रत्येक के लिए एल अलग सौर पैनल है। पंप से पानी खींचने के लिए पवन चक्की है और सार्वजनिक और घरेलू उपयोग के लिए क्रमशः बड़े और छोटे बायोगैस संयंत्र लगे हुए हैं।


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सौर विद्युत संयंत्र (फोटोवोल्टिक संयंत्र) हमारे देश के तमिलनाडु, कर्नाटक, पंजाब, दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान जैसे राज्यों में सौर ऊर्जा के इस्तेमाल के लिए स्थापित हो चुके हैं, किंतु प्रारंभिक स्थापना की अत्यधिक लागत और जमीन की उपलब्धता गंभीर समस्याएँ हैं। 


C.2 पवन ऊर्जा

सौर ऊर्जा की तरह ही पवन ऊर्जा भी एक स्वच्छ और अक्षय ऊर्जा है। यह किसी प्रकार के प्रदूषक निर्माण नहीं करती, और इसलिए भविष्य के लिए एक अच्छी संभावना है।


यह, वास्तव में, हवा की गतिज ऊर्जा है, और इसकी उपज हवा की गति पर निर्भर करती है। वर्तमान में पवन ऊर्जा का उपयोग पिसाई, पानी खींचने के लिए (पवन चक्की) या विद्युत सृजन के लिए किया जाता है। इस समय पवन ऊर्जा का इस्तेमाल हमारे देश में सबसे तीव्र गति से विकसित होने वाला अक्षय ऊर्जा उद्योग है, जिसका संचित विकास लगभग 13,000 मेगावाट विद्युत उत्पादन का है, जिसमें तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, और राजस्थान पवन ऊर्जा का इस्तेमाल करनेवाले अग्रणी राज्य हैं।

पृथ्वी का लगभग 70 प्रतिशत क्षेत्र महासागरों से घिरा हुआ है। इन महासागरों पर बहने वाली हवाएँ समुद्री लहरों का निर्माण करती हैं। हाल के वर्षों में इन लहरों से विद्युत उत्पादन, समुद्र के पानी का डिसेलिनेशन, या इस पानी के जलाशयों में पम्पिंग के लिए इस्तेमाल करने के प्रयास किये जा रहे हैं। इस क्षेत्र में कई उपकरण विकसित किये गए हैं परंतु ये सभी अभी अपनी प्राथमिक अवस्था में हैं। एक स्वच्छ ऊर्जा होने के कारण तरंग ऊर्जा भविष्य के लिए एक अच्छा संभाव्य ऊर्जा स्रोत है।




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C.3 पनबिजली ऊर्जा


प्राचीन काल से ही मानव समाज गिरते या बहते पानी से निर्मित ऊर्जा का उपयोग करता चला आ रहा है। हालाँकि, गिरते पानी से विद्युत उत्पादन के लिए पनबिजली विद्युत स्टेशनों की स्थापना 19 वीं सदी के उत्तरार्ध में हुई। प्रारंभिक काल में पानी को एक ऊंचे स्थान पर (पहाड़ों में) एकत्रित करने के लिए छोटे-छोटे जलाशय विकसित किये जाते थे, और फिर इस एकत्रित पानी को एक नियंत्रित रूप में टर्बाइनों को चलाने के लिए बहने दिया जाता था, जो पानी की गतिज ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करते थे।

20वीं सदी के विकास के साथ बड़े जलाशयों के साथ बडे विद्युत संयंत्रों का विकास हुआ। हालाँकि पनबिजली ऊर्जा एक बहुत ही स्वच्छ ऊर्जा स्रोत है और इससे किसी भी प्रकार का ग्रीनहाउस गैस प्रदूषण (कार्बनडाइ ऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड इत्यादि) और ईंधन व्यय नहीं होता है, बड़े जलाशयों से कुछ पर्यावरणीय और सामाजिक समस्याएँ निर्मित हो जाती हैं। इनके कारण हजारों लोगों को विस्थापित करना पड़ता है, जिन्हें ठीक ढंग से पुनर्स्थापित करना पड़ता है। साथ ही इससे बड़े वन क्षेत्र डूब में आ जाते हैं, जो हमारी बहुमूल्य जैवविविधता पर गंभीर विपरीत प्रभाव डालते हैं।



C.4 भूतापीय ऊर्जा



भूतापीय (भू-पृथ्वी, तापीय-गर्मी) ऊर्जा का सम्बन्ध जमीन में निर्मित और संग्रहित ताप ऊर्जा से है। पृथ्वी के अंतर्भाग में आज भी सतत अपार ऊष्मा विद्यमान है, व यह दुनिया के विभिन्न भागों में समय≤ पर होने वाले ज्वालामुखी विस्फोटों से देखा जा सकता है। यह ऊष्म अंतर्भाग, ज्वालामुखीय गतिविधियाँ और पृथ्वी में विद्यमान रेडियोधर्मी खनिजों के सड़ने की प्रक्रिया इस भूतापीय ऊर्जा के प्राथमिक स्रोत हैं।

हालाँकि, भूतापीय ऊर्जा का उपयोग स्नान के लिए, गरम करने के लिए और पकाने के लिए प्राचीन काल से होता आ रहा है, परंतु इस ऊर्जा से विद्युत उत्पादन हाल में किया गया विकास है। बढ़ती लागतों और जीवाश्म ईंधन संसाधनों के तेजी से होते क्षरण से ही इस क्षेत्र में रूचि विकसित हुई।

आज इस ऊर्जा से विद्युत उत्पादन करने वाले देशों में संयुक्त राज्य अमेरिका 3086 मेगावॉट (2010) संस्थापित क्षमता के साथ सबसे आगे है, जबकि अन्य देशों में फिलीपीन्स, इंडोनेशिया, मेक्सिको, और इटली हैं। भूतापीय ऊर्जा का विद्युत उत्पादन करने के लिए इस्तेमाल करने वाले आज दुनिया में 20 से अधिक देश हैं।

भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने विशेष रूप से उत्तर पश्चिमी हिमालयीन क्षेत्र और पश्चिमी तटीय क्षेत्र में 350 से अधिक गर्म पानी के झरने के ठिकाने चिन्हित कर लिए हैं। लद्दाख क्षेत्र की पुगा घाटी (जम्मू एवं कश्मीर) में बहुत ही आशाजनक भूतापीय क्षेत्र है, जहाँ एक प्रायोगिक विद्युत जनरेटर क्रियान्वित भी हो चुका है। प्रसिद्ध तीर्थस्थलों बद्रीनाथ और यमुनोत्री (उत्तराखंड) में गर्म पानी के जलाशयों का स्नान के लिए उपयोग हजारों वर्षों से होता आ रहा है। यमुनोत्री में एक खौलते पानी के जलाशय का उपयोग तीर्थयात्रियों द्वारा चावल पकाने के लिए किया जाता है।

एक अन्य तीर्थस्थल मणिकरण (हिमाचल प्रदेश) में कई गर्म पानी के झरने हैं, इनमे से कई खौलते पानी के फव्वारों जैसे हैं। यहाँ का एक गर्म पानी का जलाशय खाना पकाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। वास्तव में, पास के गुरुद्वारे का पूरा लंगर इसी जलाशय में पकता है। इसके लिए किसी अन्य ईंधन का उपयोग नहीं किया जाता।

भूतापीय ऊर्जा को स्वच्छ, किफायती और स्थायी माना जाता है। अतः, इसे भविष्य के लिए एक सशक्त अपारंपरिक ऊर्जा स्रोत के रूप में देखा जा रहा है।

यह सच है कि इसमें भी कुछ पर्यावरणीय समस्याएँ हैं, जैसे पृथ्वी के गहरे अंतर्भाग से निकले द्रव अपने साथ कुछ हानिकारक गैसों के मिश्रण, जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, (सीओ2) हाइड्रोजन सल्फाइड (एच2एस), मीथेन (सीएच4) और अमोनिया (एनएच3) लाते हैं। ये सभी पर्यावरणीय प्रदूषक हैं और ग्लोबल वार्मिंग, अम्ल वर्षा और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक गंध निर्माण करने में योगदान देते हैं। लेकिन इनका प्रभाव जीवाश्म ईंधन की तुलना में कहीं कम है। साथ ही भूतापीय स्रोतों से निकले हुए गर्म पानी में घुले हुए जहरीले रसायन, जैसे पारा, आर्सेनिक, बोरोन, सुरमा इत्यादि हो सकते हैं। यदि ये रसायन उपस्थित हैं, तो इन्हें नष्ट करने के लिए सावधानीपूर्वक उपाय करने की आवश्यकता है।

C.5 बायोमास ऊर्जा



बायोमास ऊर्जा एक अक्षय ऊर्जा स्रोत है, क्योंकि यह पौध सामग्री और पशु अपशिष्ट से प्राप्त होती है, और यह निरंतर प्राप्त की जा सकती है, यदि हम इसे स्थायी क्रम में प्राप्त करें। अर्थात, जैसे-जैसे हम बायोमास ईंधन के लिए कुछ पेड़ों को नष्ट करते हैं, वैसे ही हमें नया वृक्षारोपण निरंतर करते रहना चाहिए।

बायोमास मानव द्वारा उपयोग की गयी प्राचीनतम ऊर्जा है और औद्योगिक क्रांति तक सर्वाधिक प्रभावी थी। बायोमास के प्राथमिक स्रोत पौधे, पशु अपशिष्ट, सड़ने वाला जैविक नगरपालिका अपशिष्ट, खाद्यान्न अपशिष्ट, काष्ठ अपशिष्ट, शक्कर के कारखाने, कृषि अपशिष्ट इत्यादि हैं। बायोमास ऊर्जा के लिए वृक्षारोपण किया जा सकता है।

बायोमास को सीधे ऊर्जा के रूप में गर्म करने, खाना पकाने इत्यादि के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, जैसे कि कई दूरस्थ समुदायों में आज भी इसका उपयोग किया जा रहा है। या इसे अन्य उपयोग के लिए परिवर्तित किया जा सकता है, उदाहरणार्थ, बायोगैस, बायो ईंधन, सिनगैस इत्यादि।

पशु अपशिष्ट (गोबर) का उपयोग आम तौर पर घरेलू या सामुदायिक बायोगैस उत्पादन के लिए किया जाता है। बायो ईंधन पौधसामग्री से ईंधन उत्पादन हमारे परिवहन वाहनों के उपयोग के लिए किया जाता है (बायो इथेनॉल या बायो डीजल) ताकि जीवाश्म ईंधन पर हमारी निर्भरता और पर्यावरणीय प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सके।

सिनगैस सड़ने वाले ठोस नगरपालिका अपशिष्ट से भस्मीकरण और गैसीकरण की पद्धति द्वारा बनाया जाता है।

D. ऊर्जा संरक्षण

D.1 प्रस्तावना


ऊर्जा संरक्षण का संबंध पैसा बचाने और ग्रीनहाउस प्रभाव को कम करने की दृिष्ट से ऊर्जा के उपभोग को कम करने के साथ-साथ उपभोग के समय बर्बाद हुई ऊर्जा से पर्यावरणीय ऊष्मा को नियंत्रित करने के लिए किये जाने वाले प्रयासों से है।

संयुक्त राज्य अमेरिका के ऊर्जा विभाग (डीओई) द्वारा किये गए आकलन के अनुसार अमेरिका विश्व की सम्पूर्ण जनसंख्या द्वारा उपयोग की गई ऊर्जा की दो-तिहाई ऊर्जा बर्बाद करता है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हमारी ऊर्जा निर्गम प्रणालियों, विद्युत सृजन प्रणालियों, परिवहन प्रणालियों और निर्माण पद्धतियों इत्यादि में आवश्यक सुधार करके ऊर्जा के इस अपव्यय को नियंत्रित किया जा सके। उदाहरणार्थ, तापदीप्त प्रकाश बल्ब, जो ऊष्मा के रूप में 95 प्रतिशत विद्युत ऊर्जा को बर्बाद करते हैं, इनके स्थान पर अधिक कार्यकुशल सीएफएल छड़ों का उपयोग किया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार, हमारे आज के मोटर वाहन ऊष्मा के रूप में 86-90 प्रतिशत ऊर्जा (ईंधन) का अपव्यय करते हैं। ऊर्जा का यह अपव्यय ग्लोबल वार्मिंग और उसके परिणामस्वरूप होने वाले जलवायु परिवर्तन के मुख्य कारण हैं।

भारत सरकार ने अपने 'उज्जवल भारत' कार्यक्रम की शुरुआत ही ऊर्जा संबंधित अनेकों लक्ष्यों और जलवायु परिवर्तन प्रतिबद्धताओं को समेकित रूप में सुलझाने हेतु की थी।




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D.2 भारत में ऊर्जा संरक्षण


ऊर्जा बचत की अपार संभावनाओं और ऊर्जा दक्षता के लाभों के मद्देनजर भारत सरकार ने ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2001 (2001 का 25वां) अधिनियमित किया। इस अधिनियम में केंद्र और राज्यों के स्तर पर देश के ऊर्जा दक्षता अभियान के लिए कानूनी रूपरेखा, संस्थागत व्यवस्था, और नियामक तंत्र के प्रावधान हैं। ऊर्जा संरक्षण अधिनियम के पाँच मुख्य प्रावधान, नामित उपभोक्ताओं, उपकरणों का मानकीकरण और लेबलिंग, ऊर्जा संरक्षण भवन कोड, संस्थागत व्यवस्था का निर्माण (बीइइ) और एक ऊर्जा संरक्षण फण्ड की स्थापना, हैं।

ऊर्जा संरक्षण अधिनियम 1 मार्च 2002 से प्रभावी हुआ और ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीइइ) 1 मार्च 2002 से कार्यान्वित हुआ। भारत में ऊर्जा दक्षता संस्थागत पद्धतियाँ और कार्यक्रम, ऊर्जा संरक्षण अधिनियम के विभिन्न स्वैच्छिक और अनिवार्य प्रावधानों द्वारा मार्गदर्शित हैं। 2010 में ऊर्जा संरक्षण अधिनियम में संशोधन किया गया और इसके मुख्य संशोधन नीचे दिए गए हैंः

D.3 ऊर्जा संरक्षण (संशोधन), अधिनियम 2010 - मुख्य संशोधन


केंद्र सरकार नामित उपभोक्ताओं को, जिनका ऊर्जा उपभोग निर्धारित मानदंडों और मानकों से कम है, निर्धारित  प्रक्रियों के तहत, ऊर्जा बचत सर्टिफिकेट जारी कर सकती है।

जिन नामित उपभोक्ताओं का ऊर्जा उपभोग निर्धारित मानदंडों और मानकों से अधिक है, वे भी निर्धारित मानदंडों और मानकों का पालन करने के लिए ऊर्जा बचत सर्टिफिकेट खरीद सकते हैं।

केंद्र सरकार, ब्यूरो की सलाह से, उपभोग की गई ऊर्जा के समतुल्य, प्रति मैट्रिक टन तेल का मूल्य निर्धारित कर सकती है।  जिन व्यावसायिक भवनों का संयोजित लोड 100 किलोवॉट या अनुबंध मांग 120 केवीए या उससे अधिक है, ये सभी भवन ऊर्जा संरक्षण अधिनियम के इसीबीसी के कार्यक्षेत्र के अंतर्गत समाविष्ट होंगे।

D.4 ऊर्जा दक्षता ब्यूरो


भारत सरकार ने 2001 के ऊर्जा संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, मार्च 2002 में ऊर्जा दक्षता ब्यूरो का निर्माण ऊर्जा मंत्रालय की एक शाखा के रूप में किया। इस ब्यूरो का कार्य ऐसे कार्यक्रमों का विकास करना है जो देश के ऊर्जा संरक्षण और ऊर्जा दक्षता में संवर्धन कर सकें। सरकार ने प्रस्ताव किया है कि जनवरी  2010 से, भारत में सभी उपकरणों के लिए ऊर्जा दक्षता ब्यूरो द्वारा दर्जा निर्धारण अनिवार्य किया जाये। ऊर्जा दक्षता ब्यूरो के उद्देश्य सभी ऊर्जा दक्षता सेवाओं को ‘‘संस्थागत‘‘ करना, वितरण तंत्र को सक्षम बनाना, और देश के सभी क्षेत्रों में ऊर्जा दक्षता में नेतृत्व प्रदान करना हैं। इसका प्राथमिक उद्देश्य अर्थव्यवस्था में ऊर्जा तीव्रता को कम करना है।


ब्यूरो के व्यापक उद्देश्य इस प्रकार हैंः
  1. राष्ट्रीय ऊर्जा संरक्षण और दक्षता प्रयासों और कार्यक्रमों को नेतृत्व प्रदान करना और इसके लिए नीतिगत सिफारिशें और दिशानिर्देश जारी करना।
  2. ऊर्जा दक्षता और संरक्षण की नीतियों और कार्यक्रमों में समन्वय स्थापित करना और इन्हें हितग्राहियों तक पहुँचाना।
  3. व्यक्तिगत क्षेत्रों में और स्थूल स्तर पर ऊर्जा दक्षता की गणना, निगरानी और सत्यापन करने के लिए पद्धतियाँ और प्रक्रियाएँ स्थापित करना।
  4. ऊर्जा संरक्षण अधिनियम के क्रियान्वयन और ऊर्जा और इसके संरक्षण कार्यक्रमों के कुशल उपयोग में बहुपक्षीय, द्विपक्षीय और निजी क्षेत्र के समर्थन का लाभ उठाने का प्रयास करना।
  5. निजी-सार्वजनिक सहयोग के माध्यम से ऊर्जा संरक्षण अधिनियम द्वारा अनिवार्य की गई ऊर्जा दक्षता सेवाओं का वितरण सुनिश्चित करना।
  6. ऊर्जा संरक्षण अधिनियम द्वारा परिकल्पित ऊर्जा संरक्षण कार्यक्रमों की व्याख्या करना, उनका नियोजन और प्रबंधन करना।
  7. राष्ट्रीय ऊर्जा संरक्षण कार्यवाईओं के लिए नीतिगत सिफारिशें और दिशानिर्देश तैयार करना, ऊर्जा के कार्यक्षम उपयोग के लिए नीतियों और कार्यक्रमों का समन्वय करना और हितग्राहियों के साथ पद्धतियाँ और प्रक्रियाएँ प्रस्थापित करना।
  8. ऊर्जा दक्षता में हुए सुधारों को सत्यापित करना, उनकी परिवीक्षा करना और उनका मापन करना।
  9. ऊर्जा संरक्षण अधिनियम 2001 के क्रियान्वयन में बहुपक्षीय, द्विपक्षीय और निजी क्षेत्र के समर्थन का लाभ उठाने का प्रयास करना।
  10. निजी-सार्वजनिक सहयोग के माध्यम से ऊर्जा दक्षता वितरण प्रणाली को प्रतिस्थापित करना।



D.5 पेट्रोलियम संरक्षण अनुसंधान संघ (पीसीआरए)



आम जनता में पेट्रोलियम उत्पादों के प्रभावी उपभोग की आवश्यकता और महत्त्व के प्रति जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय के तत्वावधान में 1978 में पेट्रोलियम संरक्षण अनुसंधान संघ (पीसीआरए) की स्थापना की गई। यह वही दशक था जिसमें दुनिया ने पहला वैश्विक तेल झटका अनुभव किया।

अभियानः पेट्रोलियम उत्पादों के संरक्षण की आवश्यकता के प्रति जन जागरूकता निर्माण करने और उपभोक्ताओं को इन उत्पादों को वास्तव में संरक्षित करने के लिए ठोस उपायों की जानकारी देने और उन्हें ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से मल्टी-मीडिया अभियान चलाये जा रहे हैं। इन जन जागरूकता अभियानों को लोगों तक पहुँचाने के लिए पेट्रोलियम विपणन कंपनियां भी मीडिया उपयोग में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। जन जागरूकता के आधार को विस्तारित करने के उद्देश्य से समग्र रूप से तेल क्षेत्र, केंद्र और राज्य सरकारों के सम्बंधित मंत्रालयों/विभागों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और चेम्बर ऑफ कॉमर्स के साथ समन्वय में पूरे देश में जनवरी में एक संरक्षण सप्ताह का आयोजन कर रहा है। इस सप्ताह के दौरान मल्टी-मीडिया जन जागरूकता अभियान और शिक्षा अभियान के अतिरिक्त विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं।

स्नेहक (लूब्रिकेंट): गुणवत्ता उन्नयन के माध्यम से तरल ईंधनों और स्नेहक तेलों के संरक्षण की उत्कृष्ट संभावना की दृष्टी से प्रति वर्ष ढ़ाई लाख टन उच्च ग्रेड स्नेहकों के उत्पादन और विक्रय के लिए एक कार्य योजना तैयार की गई, जो तेल कंपनियों द्वारा पूर्ण रूप से लागू भी कर दी गई है। इस योजना के तहत चरणबद्ध तरीके से कम क्षमता वाले स्नेहकों को उच्च ग्रेड स्नेहकों द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना है।

प्रतिस्थापनः संपीडित प्राकृतिक गैस (सीएनजी) कई देशों के परिवहन क्षेत्र में ईंधन के रूप में प्रयुक्त होती है। पर्यावरण के अनुकूल होने के साथ-साथ यह एक सुरक्षित और स्वच्छ ज्वलन ईंधन है। यह तथ्य प्रस्थापित हो चुका है की इसके उपयोग से अन्य ईंधनों की तुलना में हाइड्रोकार्बन और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसे निकास उत्सर्जनों की मात्रा काफी कम हो जाती है। सीसा और सल्फर जैसे जहरीले उत्सर्जन पूर्ण रूप से समाप्त हो जाते हैं। विद्यमान पेट्रोल जनित वाहन एक परिवर्तन किट के माध्यम से सीएनजी का इस्तेमाल कर सकते हैं। ऐसे परिवर्तित वाहनों में पेट्रोल और सीएनजी में से किसी भी ईंधन पर्याय का उपयोग करने का विकल्प उपलब्ध रहता है। परिवहन क्षेत्र में सीएनजी के उपयोग का एक प्रयोगात्मक कार्यक्रम गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (जीएआयएल) द्वारा 1992 में शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम के तहत गेल द्वारा दिल्ली, मुंबई, वड़ोदरा, और सूरत में सीएनजी उपलब्ध कराई गई है। सीएनजी के वितरण के लिए प्राकृतिक गैस को संपीडित किया जाता है और मदर संपीडक स्टेशन में ट्रक पर लदे कैस्केड्स (सिलेंडरों की टोकरी) में भरा जाता है और वितरण के लिए इसका परिवहन सीएनजी केन्द्रों को किया जाता है।

वस्त्र रंगद्रव्य छपाई में केरोसिन के उपयोग को सिंथेटिक रोगन द्वारा प्रतिस्थापित करने का एक कार्यक्रम क्रियान्वित किये जाने की तैयारी में है। इसका उद्देश्य है कि इस प्रक्रिया द्वारा केरोसिन का 40 से 50 प्रतिशत तक संरक्षण किया जा सके। इस प्रक्रिया में वस्त्र उद्योग को तकनीक में किसी बड़े परिवर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए संबंधित राज्यों को स्थानीय बाजार में विक्रय किये जाने वाले केरोसिन का कोटा वस्त्र रंगद्रव्य छपाई उद्योग के लिए कम करने के निर्देश जारी कर दिए गए हैं।


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हाइड्रोकार्बन के संरक्षण के लिए तेल रिफाइनरियां सुधारित हाउसकीपिंग पद्धतियों को लागू करने के अलावा अक्षम भट्टियों, बॉयलर और हीट एक्सचेंजर्स, गरम करने वाले उपकरणों आदि में सुधार करने और उन्हें बदलने के लिए कई योजनाएं चला रही हैं। तेल क्षेत्र में, कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के अन्वेषण, उत्पादन, और परिवहन के कार्यों से जुडी इकाइयों द्वारा भी कई तरह के प्रभावी और परिणामोन्मुख उपाय अपनाये गए हैं।

D.6 ऊर्जा संरक्षण में नवप्रवर्तन


जनसंख्या में हुई विशाल वृद्धि के साथ ऊर्जा आवश्यकताओं पर दबाव बढ़ गया है। अतः ऊर्जा संरक्षण अत्यंत अनिवार्य हो गया है। प्रत्येक अर्थव्यवस्था में घरेलू क्षेत्र ऊर्जा का सबसे प्रमुख उपभोक्ता है। अतः ऊर्जा की बचत के लिए पारंपरिक पद्धतियों का स्थान बडे़ पैमाने पर आविष्कारों और नवप्रवर्तनों ने ले लिया है। सुगठित प्रतिदीप्त दीपों (सीएफएल) ने उद्दीप्त दीपों (बल्बों) का स्थान ले लिया है। खुले बर्तनों में खाना पकाने के स्थान पर दाबानुकूलित वाष्प कुकर और निश्चित ही सौर कुकर का उपयोग किया जाने लगा है। ऊर्जा संरक्षण के लिए जिन अन्य ऊर्जा दक्ष उपकरणों उपयोग किया जा सकता है वे हैं हीरा हॉटप्लेट, पीआरपी बैलगाड़ी, इलेक्ट्रॉनिक स्थिरक भार उपकरण के साथ ट्यूब लाइट, जो किसी विद्युत परिपथ में विद्युत प्रवाह को सीमित करके ऊर्जा उपभोग को कम करने में सहायक होता है।
भारत में ऊर्जा संरक्षण के लिए जिन कुछ नवप्रवर्तनों को अपनाया जा रहा है वे निम्नानुसार हैंः

पारिस्थितिकी सदनः इसका निर्माण 1970 के दशक के मध्य में किया गया था। इसे एक सौर कुकर और बहुखाद्य जैविक गैस संयंत्र से सुसज्जित किया गया था। इस सदन में वर्षा जल संचयन भी किया जाता है। छत पर स्थापित पवन जनित्र लगाने के बारे में भी विचार हुआ था परंतु इसे स्थापित नहीं किया गया। इस सदन में निम्नलिखित प्रौद्योगिकियों का उपयोग किया गया थाः
  1. छत के साथ एकीकृत सौर जल तापक
  2. भूमिगत जलाशय के साथ वर्षा जल संचयन
  3. बहु खाद्य जैविक गैस संयंत्र, जिसका उपयोग आवश्यकता पड़ने पर मलकुंड़ के रूप में भी किया जा सकता है
  4. खिड़की पर जड़ा हुआ निकालने योग्य सौर कुकर
  5. विभिन्न प्रकार की तीन प्रायौगिक छतें जैसे खोखले ठोस टाइल, पूर्वनिर्मित ईंट से बने जैक आर्क, मद्रास टैरेस छत
  6. वेंचुरा के लिए डिजाइन किया गया (आतंरिक आँगन के माध्यम से हवादान)
  7. छत के हवादान के माध्यम से ठंडी हवा को अंदर खींचने और गर्म हवा को बाहर छोड़ने के लिए उच्च दबाव और न्यून दबाव का उपयोग करने वाली वेंचुरा प्रणाली।

ऑरोविले पर्यटक केंद्रः यह 1989 में पांडिचेरी में निर्मित एक सार्वजनिक भवन है। 1980 के दशक तक अनेक कम लागत और वैकल्पिक प्रौद्योगिकियों का आगाज हो चुका था। प्रत्येक चीज को एक व्यावहारिक और सुखद वातावरण में एकीकृत करने के प्रयास काफी सफल हुए थे और इनके लिए इसे 1992 में हसन फैथी अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्रदान किया गया था। इसके निर्माण के दौरान निम्नलिखित प्रौद्योगिकियों और उपकरणों का उपयोग किया गया था।

  1. संपीडित मृदा खंड
  2. लौह मिश्रित सीमेंट की छत वाहिकाएं और निर्माण तत्व
  3. सौर धुआँदान
  4. पवन पंप
  5. जल सौर पीवी पंप
  6. पवन जनित्र
  7. विकेंद्रीकृत अपशिष्ट जल प्रणाली

सौर रसोईः सामुदायिक रसोई का निर्माण प्रतिदिन 2000 लोगों का खाना तैयार करने के लिए किया गया था। इस संकल्पना का क्रियान्वयन 1994 से शुरू किया गया। चूंकि दक्षिण भारत में सौर ऊर्जा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है, अतः खाना पकाने के लिए वाष्प का एक ऊष्मा हस्तांतरण माध्यम के रूप में उपयोग करना एक प्रकट और स्पष्ट विकल्प था। सौर रसोई की निम्नलिखित विशेषताएं हैंः
  1. संपीडित मृदा खंड
  2. 15 मीटर व्यास के सौर चषक संकेंद्रक
  3. शेलर सामुदायिक कुकर संकेंद्रक
ईंधन तेल, गैस, लकड़ी, बिजली, सूर्य की ऊष्मा और कोयले जैसे विभिन्न उष्मन स्रोतों का घरों और व्यावसायिक भवनों में उपयोग किया जा सकता है। ऊर्जा संरक्षण के माध्यम से भारी मात्रा में आर्थिक बचत भी प्राप्त की जा सकती है। भूमि का प्रभावी उपयोग ऊर्जा संरक्षण का एक उपयुक्त साधन हो सकता है। किसी नगर की बनावट इस प्रकार की होनी चाहिए जिससे विकासोन्मुख संघनन नगर के बीच में अधिकतम हो, जहां नगरीय जल एवं मलनिस्सारण की सुविधा उपलब्ध है। नगर के बाहरी क्षेत्रों में निर्माण कार्य काफी कम होना चाहिए। किसी उपनगर को पर्यावरण अनुकूल बनाने की दिशा में उन्मुखीकरण केवल वहां के निवासियों के सहयोग से ही किया जा सकता है।

किसी उपनगर में पर्यावरण अनुकूल वास्तुकला से निर्मित भवन संरचनाएं हो सकती हैं, परंतु जब तक वहां के निवासी ऊर्जा संरक्षण और पर्यावरण अनुकूल जीवन शैली अपनाने का संकल्प नहीं लेते या उन्हें नहीं अपनाते, तब तक ऊर्जा सक्षम नगर की अवधारणा का प्रयोजन बेकार है। शिक्षा, पर्यावरण अनुकूल आचरण और पारिस्थितिकी की दृष्टि से सशक्त अधोसंरचना ही सच्चे अर्थों में ऊर्जा सक्षम हरित नगरों का निर्माण कर सकती है।

D.7  शिक्षा का महत्व


शिक्षा ही ऊर्जा संरक्षण की जागरूकता निर्माण करने का सर्वोत्तम साधन है। एक उचित शीर्षक और प्रतीक चिन्ह के साथ एक ब्रांडेड कार्यक्रम तैयार किया जा सकता है, ताकि ऊर्जा संरक्षण के संदेश को उपनगर के सभी सामुदायिक केंद्रों और दस्तावेजों में अंकित किया जा सके। ऊर्जा संरक्षण की जानकारी सभी वेबसाइटों, और स्थानीय केबल सेवा केंद्रों पर उपलब्ध होनी चाहिए। ऊर्जा संरक्षण के सही दृष्टिकोण के लिए नागरिकों को तेल ईंधन का उपयोग करने वाले वाहनों का उपयोग कम करने और पैदल और साइकिल से अधिक चलने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करने के लिए सार्वजनिक भवनों पर साइकिल केंद्र स्थापित किये जा सकते हैं। ऊर्जा संरक्षण का सर्वोत्तम उपाय है बाहर जाते समय बत्तियों और पंखों को अनिवार्य रूप से बंद करना, जब संगणकों का उपयोग नहीं किया जा रहा हो तो उन्हें आवश्यक रूप से बंद करना। जब विद्युत उपकरण इस्तेमाल में न हों तो उन्हें प्लग से निकाल देना चाहिए। सर्दियों में ताप नियत करने की प्रणाली को न्यूनतम करें और केवल गर्मियों में ही उन्हें बढाएं। घरेलू और व्यावसायिक अपशिष्ट का पुनः चक्रण किया जाना चाहिए। ऊर्जा संरक्षण की दृष्टि से इसका अत्यंत सकारात्मक परिणाम होगा। यंत्रों  और कार्यालयीन उपकरणों को ऊर्जा स्टार रेटेड इकाइयों द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए। यह ऊर्जा  उपयोग और लागतों को कम करेगा।

हरित भवनः हालांकि यह एक महंगा तरीका है, फिर भी जो ऊर्जा संरक्षण तंत्र पारंपरिक उत्पादों से सस्ते हैं उनका उपयोग किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त भवनों का विन्यास, बनावट और निर्माण भी उष्मन, शीतलन और प्रकाश के लिए आवश्यक ऊर्जा की मात्रा को काफी प्रभावित करता है। उचित बनावट, भवन, अभिविन्यास, निर्माण और भूदृश्य निर्माण ऊर्जा संरक्षण उपायों के लिए अवसर प्रदान करते हैं, जैसे निष्क्रिय सौर स्थान, घरेलू गर्म पानी उष्मन तंत्र, प्रा.तिक प्रकाश और फोटोवोल्टिक बिजली का उत्पादन। इसके अतिरिक्त, गैर नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के बजाय अक्षय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग अधिक किया जाना चाहिए।


सरकारी दावे यहाँ देखे जा सकते हैं - उज्जवल भारत कार्यक्रम श्रृंखला 




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D.8 कार्यकुशल और जलवायु अनुकूल वातानुकूलन प्रशीतक


भारत के पहले से ही विद्यमान उच्च परिवेशी तापमानों के साथ, एक  बढ़ते हुए मध्यम वर्ग और तेजी से बढ़ती हुई आर्थिक आवश्यकताओं के कारण वातानुकूलन की मांग में 2005 से 2030 के बीच पांच गुना वृद्धि होने का अनुमान व्यक्त रहा है, जिसके परिणामस्वरूप भारत की विद्युत ग्रिड की मांग भी बढ़ती जा रही है। ऊर्जा ग्रिड पर वर्तमान भारी दबाव के कारण ऊर्जा की मांग में कमी करना देश भर में विश्वसनीय बिजली की आपूर्ति की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। ऊर्जा की दृष्टि से कार्यकुशल प्रशीतकों के उपयोग को प्रोत्साहित करने के लिए एक मददगार नीतिगत रूपरेखा का उपयोग करना और प्रदान करना भारत के बढ़ते ऊर्जा संकट को संबोधित करने में सहायक हो सकता है।

भारत मोंट्रियल प्रोटोकॉल रूपरेखा से सहायता प्राप्त कर सकता है जो पहले ही स्थापित हो चुकी है और इसने क्लोरोलोरोकार्बन (सीएफसी) जैसे ओजोन क्षीण करने वाले पदार्थों से अलग अवस्थांतर को संबोधित करने के एक प्रभावी साधन का कार्य सफलतापूर्वक किया है। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत इसकी राष्ट्रीय प्रतिबद्धता के भाग के रूप में भारत ओजोन क्षीण करने वाले प्रशीतकों के उपयोग को चरणबद्ध ढंग से समाप्त करने में प्रक्रियारत है। हालांकि ओजोन को क्षीण करने वाले सीएफसी से अलग जाने की प्रक्रिया में उद्योग जगत सीएफसी को एचएफसी से प्रतिस्थापित कर रहा है, जिनका एक गंभीर ग्लोबल वार्मिंग प्रभाव है, जो कार्बन डाइऑक्साइड से एक हजार गुना से भी अधिक तीव्र है। यह लगभग निश्चित है कि उच्च जीडब्लूपी एचएफसी को भी अंततः चरणबद्ध ढंग से समाप्त करना आवश्यक है। कुशल होने के लिए भारत मोंट्रियल प्रोटोकॉल का सहारा लेकर सीधे न्यून जीडब्लूपी विकल्पों की ओर तुरंत ही स्वयं को परिवर्तित कर सकता है, बजाय इसके कि वह ऐसी प्रौद्योगिकी का उपयोग करे जो शीघ्र ही वैश्विक स्तर पर अप्रचलित होने वाली है।

‘‘मेक इन इंडिया‘‘ अभियान के तारतम्य में भारतीय विनिर्माता विश्व भर के प्रमुख बाजारों में अपनाये गए वैकल्पिक न्यून जीडब्लूपी प्रशीतकों की ओर अग्रसर होकर काफी लाभ प्राप्त करने की संभावना है। यूरोप, जापान, अमेरिका और चीन जैसे वैश्विक बाजारों ने पहले से ही उच्च जीडब्लूपी एचएफसी के  चरणबद्ध ढंग से कम करना शुरू कर दिया है। वर्तमान में विकल्पों के रूप में आर-290 और आर-32 उपलब्ध हैं और इनकी ऊर्जा कुशलता रेटिंग उच्च है। यदि भारत इन ऊर्जा कुशल विकल्पों का उपयोग करना शुरू करता है तो वह अनेक बाजारों में पैठ बना सकता है। हालांकि एचएफसी -410ए का मार्ग जारी रखना इन अवसरों को अवरुद्ध कर देता है।

E. वैश्विक ऊर्जा और जलवायु-परिवर्तन प्रतिबद्धताएं 


हालाँकि अब विश्व ये मानता है कि अल्प अवधि के भौतिकतावादी लक्ष्य प्राप्त करने हेतु जलवायु परिवर्तन प्रतिबद्धताओं से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता - जैसा कि जी-२० हैम्बर्ग सम्मलेन में हुए १९-१ मत विभाजन से स्पष्ट हो गया, फिर भी हमें एक लम्बा रास्ता तय करना है। पर्यावरण सुरक्षा हेतु ऊर्जा और उसका संरक्षण सुनिश्चित करना सबसे बड़ी चुनौती होगी।

हालाँकि अब विश्व ये मानता है कि अल्प अवधि के भौतिकतावादी लक्ष्य प्राप्त करने हेतु जलवायु परिवर्तन प्रतिबद्धताओं से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता - जैसा कि जी-२० हैम्बर्ग सम्मलेन में हुए १९-१ मत विभाजन से स्पष्ट हो गया, फिर भी हमें एक लम्बा रास्ता तय करना है। पर्यावरण सुरक्षा हेतु ऊर्जा और उसका संरक्षण सुनिश्चित करना सबसे बड़ी चुनौती होगी। 

भारत ने भी अपने आई. एन. डी. सी. (INDC) - अभिप्रेत राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अंशदान - प्रस्तुत कर दिए हैं। इसमें २०२१-३० तक के सभी प्रमुख मुद्दों को समाविष्ट किया गया है, और आपको अच्छी जानकारी मिलेगी!


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PT's IAS Academy: पर्यावरण व पारिस्थितिकी तंत्र - अध्ययन सामग्री १ - ऊर्जा एवं भारत में ऊर्जा संरक्षण - सिविल्स तपस्या पोर्टल
पर्यावरण व पारिस्थितिकी तंत्र - अध्ययन सामग्री १ - ऊर्जा एवं भारत में ऊर्जा संरक्षण - सिविल्स तपस्या पोर्टल
मानवता किस प्रकार ऊर्जा का इस्तेमाल करेगी, और अपने कार्बन उत्सर्जन का प्रबंधन करेगी, ये आधुनिक विश्व में पर्यावरण संरक्षण क्षेत्र का सबसे मूल मुद्दा है। पारिस्थितिकी तंत्र और पर्यावरण की समझ हेतु हमें पहले अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं, व्यवस्थाओं और चुनौतियों को समझना होगा।
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