जैसे जैसे स्वतंत्रता संग्राम बढ़ता गया, १९१४ में प्रथम विश्व युद्ध आ पहुंचा। महात्मा गाँधी ने १९१५ में भारत में पदार्पण किया, और हमारे स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा मिली। फिर आये अनेक सत्याग्रह जिन्होनें गाँधी को उनका विशेष दर्जा दिया। और फिर आया खिलाफत आंदोलन, और अंततः रौलेट अधिनियम और उसका विरोध।
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आइये, एक वृहद अध्ययन करें - (१) सर्वप्रथम, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन एवं प्रथम विश्व युद्ध, (२) गांधीजी का प्रारंभिक राजनीतिक काल, और (३) खिलाफत और असहयोग आंदोलन (१९१९-'२२)
A. प्रथम विश्व युद्ध और भारत
A.1 प्रस्तावना

A.2 होम रूल लीग
कई भारतीय नेता इस बात को स्वीकार कर चुके थे कि अंग्रेज सरकार तब तक किसी प्रकार की छूट नहीं देगी जब तक कि लोकप्रिय जनमत का दबाव नहीं होगा। अंग्रेजों पर दबाव बनाने के लिए राजनीतिक जन आन्दोलन आवश्यक था। कई और कारक भी राष्ट्रीय आंदोलन को इस दिशा में मोड़ रहे थे। विश्व युद्ध ने इस मिथक को खत्म कर दिया था कि पश्चिमी देश, एशियाई देशों से श्रेष्ठ हंै क्योंकि उनकी जाति श्रेष्ठ है, और युद्ध से भारत के गरीबों की समस्याएं और बढ़ गई थी। अंग्रेजों ने युद्ध की लागत के कारण करों में वृद्धि कर दी। अंग्रेजांे की आर्थिक नीतियों के कारण आवश्यक वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे थे। इसलिए उस समय लोग किसी भी जन-आंदोलन में भाग लेने को तैयार थे।
1907 के सूरत विभाजन के पश्चात्, उदारवादी नेताओं के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, निष्क्रिय और निर्जीव राजनीतिक संगठन बन चुका था जिसके पास कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं था जिस पर लोग विश्वास कर सकंे। इसलिए दो होम-रूल लीगों की स्थापना 1915-16 में की गई। एक के नेता लोकमान्य तिलक थे तो दूसरी कीं, भारतीय संस्कृति एवं लोगों की एक अंग्रेज प्रशंसक महिला, एनी बेसेन्ट और एस. सुब्रमण्यम अय्यर।

तिलक की लीग की स्थापना 28 अप्रैल 1916 में हुई जिसका मुख्यालय पूना में था। दोनो ही लीगों ने एक दूसरे से सहयोग किया और दोनों ने ही गतिविधियों के कार्यक्षेत्र भी विभाजित कर लिये। जहाँ तिलक की होमरूल लीग ने अपना कार्यक्षेत्र (वर्तमान के) महाराष्ट्र, कर्नाटक, म.प्र. और बेरार को बनाया, वहीं बेसेन्ट की लीग ने शेष भारत में कार्य किया। इसी दौरान तिलक ने उदारवादियों पर उन्हे कांग्रेस में प्रवेश देने का दबाव बनाये रखा। वे जानते थे कि एक जनाधार वाले आंदोलन को कंाग्रेस की सहायता की जरूरत होगी।
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- दोनो ही लीगों ने पूरे देश भर में ’होमरूल’ या युद्ध के बाद ’स्वराज’ के लिए प्रचार जारी रखा। इसी आन्दोलन के दौरान तिलक ने अपना प्रसिद्ध नाराः ”स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं इसे लेकर ही रहूँगा“ दिया। तिलक और बेसेन्ट दोनों ने ही पूरे देश का दौरा किया और लोगों के बीच होमरूल/स्वराज का संदेश पहुँचाया। उन्होंने अपना सन्देश समाचार पत्रों, जनसभाओं, और पैम्पलेट बांटकर फैलाने की कोशिश की।
- तिलक ने अपने समाचार पत्र ’यंग इण्डिया’ और बेसेन्ट ने उनके मुखपत्र ’न्यू इण्डिया’ के माध्यम से लोकप्रिय भावनाओं को जगाने की कोशिश की। आन्दोलन में मोतीलाल नेहरू और तेजबहादुर सप्रू जैसे उदारवादी नेताओं को आकर्षित किया जो इसके सदस्य भी बने। इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध के दौरान होमरूल लीग एक शक्तिशाली आन्दोलन बनकर उभरा।
- आंदोलन का उद्देश्य प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश राज के अधीन ही, भारत को स्वराज दिलाना था। यह संवैधानिक सीमाओं के अन्दर ही था। दोनों ही लीगों ने त्वरित प्रगति की। कई उदारवादी नेता जो कांग्रेस की निष्क्रियता से असंतुष्ट थे, होमरूल आन्दोलन से जुड़े। स्वाभाविक तौर पर होम रूल लीगों ने भारतीय अंग्रेज सरकार का ध्यान, और गुस्सा, अपनी ओर खींचा।
A.3 होम रूल आन्दोलन का पतन

किन्तु, भारत सरकार अधिनियम 1919 के पारित होने पर, इससे संबंधित मुद्दों पर कांग्रेस विभाजित हो गई। जहाँ एक ओर तिलक एक कानूनी केस लड़ने के लिए लन्दन चले गये वहीं श्रीमती बेसेंट ने सुधारों की नई योजना को स्वीकार कर लिया, इससे आन्दोलन कमजोर पड़ गया। यद्यपि होमरूल आन्दोलन अपने लक्ष्य हासिल करने में असफल हो गया तो भी इसके कारण, युद्ध के वर्षों में जब कांग्रेस जनता को कोई दिशा देने में असफल हो गयी थी, भारतीयों के दिलों में राष्ट्रवाद की आग सुलगती रही। होमरूल आन्दोलन के संबंध में प्रो. एस.आर. मेहरोत्रा कहते हैं, ”होमरूल लीग ने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन को गहरे तक प्रभावित किया। पहली बार कोई आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर हुआ और राजनीतिक समितियों ने भारत के बहुत बड़े हिस्से तक पहुंच बना ली।”
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A.4 1914 की कोमागाता मारू घटना और गदर पार्टी

प्रतिबंध लगा दिया गया था।
कोमागाता मारू घटना के द्वारा भारतीय समूहों द्वारा व्यापक स्तर पर, कनाड़ा के पक्षपात पूर्ण प्रवासी नियमों का प्रचार किया गया। इसके साथ ही घटना से संबंधित भावनाओं को भारतीय क्रांतिकारी संगठन गदर पार्टी द्वारा भी समर्थन देकर उत्प्रेरित करने की कोशिश की गई। 1914 में केलिफोर्निया में भी कई सभायें आयोजित की गई, जिनमें प्रमुख अप्रवासी भारतीयों जैसे बरकतउल्लाह, तारकनाथ दास, और सोहन सिंह जैसे गदरपार्टी के सदस्यों ने इस घटना का उपयोग गदर आन्दोलन के लिए सदस्यों की भर्ती करने के लिए भी किया। सबसे उल्ल्ेखनीय कार्य था भारत में हो रहे जन-भावनाओं के उभार का प्रचार-प्रसार कर उनका समर्थन करना। आम जनता से इन योजनाओं को समर्थन नहीें मिलने से कुछ ज्यादा हासिल नहीं हो पाया।
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- 1900 में पंजाब एक जबरदस्त आर्थिक संकट से जूझ रहा था इसलिए बड़ी संख्या में लोग उत्तरी अमेरिका के प्रशांत महासागरीय तटों की ओर पलायन कर रहे थे।
- इसी की प्रतिक्रियास्वरूप कनाड़ा सरकार ने ऐसे कानून बनाये जो दक्षिण एशियाई लोगों के कनाड़ा में प्रवेश को नियंत्रित करे और जो वहाँ पहले से रह रहे थे, उनके राजनीतिक अधिकारों को भी प्रतिबंधित करे।
- कोमागाता मारू घटना राजनैतिक नीतियों का ही परिणाम थी। पंजाबी समुदाय अब तक ब्रिटिश साम्राज्य और काॅमनवेल्थ के प्रति, महत्वपूर्ण वफादार शक्ति थी (यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश भारतीय सेना में, बड़ी संख्या में पंजाबी सैनिकांे की भर्ती उनकी वफादारी के कारण की गई थी) और इस समुदाय को यह उम्मीद थी उनकी वफादारी के एवज में अंग्रेजांे व गोरे अप्रवासियों के समान बराबरी के अधिकार मिलेंगे।
- किन्तु आव्रजंन विरोधी कानून ने, उपनिवेश विरोधी भावनाओं को भड़काया और इस समुदाय के पंजाबी नागरिकांे ने बड़ी संख्या में अमेरिका की ओर पलायन किया लेकिन वहाँ भी राजनीतिक व सामाजिक समस्याओं से सामना करना पड़ा। This content prepared by Civils Tapasya Portal by PT's IAS Academy

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- 1914 में विश्वयुद्ध शुरू होने पर गदर पार्टी ने अपने आदमियों और हथियारों को, सैनिकों और स्थानीय क्रंतिकारियों की मदद से, एक गदर की शुरूआत के लिए भेजने का निर्णय लिया। हजारों लोग स्वेच्छा से भारत वापस लौटने को तैयार हो गये। लाखों डाॅलर उनके खर्च के लिए एकत्रित किये गये। कई लोगों ने अपनी जीवन भर की जमा पूँजी, जमीनंे और सम्पत्ति दे दी।
- गदर पार्टी के लोगों ने सूदूर पूर्व, दक्षिण पूर्व एशिया और पूरे भारत में भारतीय सैनिकों से सम्पर्क किया और कुछ रेजिमेन्टस को विद्रोह के लिए तैयार कर लिया। 21 फरवरी 1915 पंजाब में सशस्त्र विद्रोह की तारीख तय कर ली गई। दुर्भाग्यवश, अधिकारियों को इस योजना का पता चल गया और उन्होनें त्वरित कार्यवाही की। विद्रोही रेजिमेन्ट्स को प्रतिबंधित कर या तो उनके नेताओं को फाँसी दे दी गई या जेल में डाल दिया गया। उदाहरण के लिए 23वीं बटालियन के 12 लोगों को फाँसी दे दी गई।
- पंजाब में गदर पार्टी के नेताओं और सदस्यों को बड़ी संख्या में कैद किया गया। उनमें से 42 को फांसी, 114 को आजीवन कारावास, और 93 को लम्बी कैद की सजा दी गई। उनमें से कई ने अपनी रिहाई के बाद पंजाब में कीर्ति और कम्युनिस्ट आंदोलन की शुरूआत की। बाबा गुरूमुख सिंह, करतार सिंह सराभा, सोहन सिंह भाकना, रहमत अली शाह, भाई प्रेमचंद और मोहम्मद बरकतउल्लाह कुछ प्रमुख गदरवादी थे।

A.5 1916 का कांग्रेस का लखनऊ अधिवेशन


लखनऊ समझौता हिन्दू मूस्लिम एकता की दिशा में एक महत्वपूर्ण बिन्दू था। दुर्भाग्यवश, इसमे हिन्दू और मुस्लिम ज्यादा बड़ी मात्रा में शामिल नहीं थे और इसमें अलग चुनाव क्षेत्रों का सिद्धान्त स्वीकार किया गया था। इसका ध्यान शिक्षित हिन्दुओं और शिक्षित मुसलमानों को राजनीतिक इकाई के रूप में, बिना धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण विकसित किये, साथ लाना था। इस तरह लखनऊ समझौते ने भारतीय राजनीति में भविष्य में होने वाले साम्प्रदायिक अलगाव के रास्ते खोल दिये थे।
लखनऊ में जो कुछ हुआ इसके प्रभाव शीघ्र दिखाई पड़ने लगे। उदारवादियों एवं कट्टरवादियों के बीच एकता तथा कंाग्रेस और मुस्लिमलीग की एकता ने देश की राजनीति में उत्साह की लहर पैदा की। यहाँ तक की अंग्रेेज़ सरकार को भी राष्ट्रवादियों को शांत करना पड़ा। पहले राष्ट्रवादी आन्दोलन को कुचलने के लिए सरकार ने शक्ति का सहारा लिया था। बड़ी संख्या में कट्टर राष्ट्रवादियों और क्रांतिकारियों को जेल भेजा गया था या कुख्यात भारत सुरक्षा अधिनियम या इस जैसे नियमों के तहत बंदी बनाया गया था। सरकार ने अब राष्ट्रवादी विचारों को शांत करने का निर्णय लिया। 20 अगस्त 1917 को उन्होनंे घोषणा की कि भारत में उनकी नीति, भारत को ब्रिटिश साम्राज्य का अविभाज्य अंग मानते हुए, एक जिम्मेदार सरकार गठन की दिशा में स्वशासी संस्थानों का क्रमशः विकास करना है। जुलाई 1918 में मांटेग-चेम्सफोर्ड सुधारों की घोषणा की गई। किन्तु यह ”बहुत थोड़ा वह भी बहुत देर से” दिया गया मामला था। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को शीघ्र ही इसके तीसरे व अन्तिम दौर-संघर्ष के दौर गाँधी युग में प्रवेश करना था। This content prepared by Civils Tapasya Portal by PT's IAS Academy
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B. गांधीजी का प्रारंभिक राजनीतिक काल
B.1 प्रस्तावना

B.2 गाँधी के दक्षिण अफ्रीका में अनुभव

1893 में वे डरबन पहुँचे, जहाँ से प्रिटोरिया के लिए रेल में बैठने के पूर्व वे एक सप्ताह ठहरे। उन्होंने प्रिटोरिया जाने के लिए रेल का प्रथम-श्रेणी का टिकट खरीदा और अपने निर्धारित स्थान पर बैठकर अपना कानूनी कार्य करने लगे। यात्रा के दौरान एक गोरे यात्री की, एक ’भारतीय कुली’ के साथ यात्रा करने की शिकायत पर, उन्हें तृतीय श्रेणी डिब्बे में जाने को कहा गया। उनके इंकार करने पर, उन्हंे ट्रेन से पीटरमैरिट्जबर्ग स्टेशन पर जबरदस्ती उतार दिया गया। वहाँ उन्होंने पूरी रात गुजारी, और बाद में, उन्होंने इस घटना को अपने राजनीतिक जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना के रूप में चित्रित किया है।
दक्षिण अफ्रीका के अनुभव ने गांधी जी को उस संघर्ष के लिए तैयार किया था, जो भारत में उनके द्वारा बाद में किया जाने वाला था। यही वह स्थान था जहां उनके अहिंसा और सत्याग्रह के हथियार पैने बने थे। स्थानीय संघर्ष के दौरान और बाद में भारत में संघर्ष के दौरान गांधी जी अक्सर दक्षिण अफ्रीका के अपने अनुभव को भारत में संघर्ष की दिशा की रूपरेखा के रूप में संदर्भित करते थे। दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी इस बात से आश्वस्त हो गए थे कि यदि अहिंसा को सही दिशा प्रदान की जाए तो यह बुराई के विरोध की दृष्टि से अजेय है। उनमें अस्पृश्यता निवारण, हिंदू-मुस्लिमएकता, राष्ट्रभाषा, मद्यनिषेध, शारीरिक श्रम का सम्मान, कताई और कुटीर उद्योगों की, सफलता की आवश्यकता को लेकर मजबूत प्रतिबद्धता विकसित हो गई थी।

1906 के ट्रांसवाल एशियाई अध्यादेश ने, जिसके अनुसार सभी भारतीयों को पंजीयन कराना और अपने साथ पास रखना अनिवार्य था, गांधीजी का ब्रिटिशों की निष्पक्षता और औपनिवेशिक सिद्धांतों पर से विश्वास उठा दिया था। जब एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल (गांधीजी और हाजी ओजेर अली) ने लंदन में साम्राज्यवादी अधिकारियों के समक्ष अपील की तो उसके बाद इस अध्यादेश को शाही स्वीकृति रोक दी गई। परंतु 1907 के प्रारंभ में ट्रांसवाल को स्वशासन प्रदान कर देने के बाद, उसने अध्यादेश की शर्तें 1907 के एशियाई पंजीयन अधिनियम में अधिनियमित कर दीं।
इसका परिणाम 1907 के पहले सत्याग्रह में हुआ। अभियान का यह प्रारंभिक चरण जनवरी 1908 के अंत में समाप्त हुआ, जब जनरल स्मट्स और गांधीजी के बीच एक अंतिम समझौता हुआ जिसके तहत भारतीय समुदाय स्वेच्छा से पंजीयन करेगा और सरकार कानून का निरसन कर देगी।
हालांकि जुलाई 1908 में स्वैच्छिक पंजीकरण हो जाने के बाद सरकार अपने वादे से मुकर गई, और सत्याग्रह फिर से शुरु हो गया। ट्रांसवाल की लगभग 10,000 की भारतीय जनसंख्या में से दो हजार से अधिक लोग, और नेटल से भी कुछ लोग पंजीकरण अधिनियम और एक प्रव्रजन कानून, जो अंतर प्रांत आवागमन को प्रतिबंधित करता था, की अवहेलना करते हुए जेल गए। 1911 में दक्षिण अफ्रीका के संघ की नवगठित सरकार के साथ वार्ता के दौरान आंदोलन को स्थगित कर दिया गया।

इसके बाद ट्रांसवाल और नेटल दोनों स्थानों पर सत्याग्रह फिर से शुरू किया गया, जिनमें 3 पौंड के कर को समाप्त करने और विवाहों को विधिमान्य बनाने की अतिरिक्त मांगें रखी गईं।
इस अंतिम चरण के दौरान 3 पौंड के कर और विवाहों पर दिए गए निर्णय से प्रभावित श्रमिक और महिलाएं भी आंदोलन में जुड गईं, परिणामतः यह एक जन आंदोलन बन गया।
सभी धर्मों और व्यवसायों के लोग इस पवित्र संघर्ष में एकसाथ आ गए। गांधीजी और उनके सहयोगियों को लंबी अवधि की सजाएं हुईं। और हडताल करने वाले नेतृत्वविहीन हो गए। अभियान के इस चरण का एक उल्लेखनीय पहलू था महिलाओं की सक्रिय भागीदारी। गांधीजी की पत्नी कस्तूरबा, जिनका स्वास्थ्य उस समय ठीक नहीं था, और वे केवल फलों के आहार पर थीं, ने अपने अनेक संबंधियों के साथ आंदोलन का नेतृत्व किया।
संपूर्ण भारत में जनमत अत्यंत उत्तेजित था। वाइसराय लॉर्ड हार्डिंग ने भी सत्याग्रहियों के साथ सहानुभूति व्यक्त की थीः भारतीय और ब्रिटिश सरकारों ने हस्तक्षेप किया, और दक्षिण अफ्रीकी सरकार को बातचीत के लिए मजबूर होना पड़ा। 30 जून 1914 के स्मट्स-गांधी समझौते के साथ सत्याग्रह समाप्त हुआ, जिसके तहत सत्याग्रहियों की सभी मांगें मान्य कर ली गईं थीं। सत्याग्रह के इस हथियार का शीघ्र ही व्यापक स्तर पर उपयोग किया जाना था)।
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B.3 सत्याग्रह की शक्ति


B.4 1915 में गाँधी का भारत आगमन

B.5 चम्पारण सत्याग्रह, 1917

गाँधी के दक्षिण-अफ्रीका अभियान के बारे में सुनकर, चम्पारण के कुछ किसानों ने उन्हें वहाँ आकर मदद करने का आव्हान किया। बाबू राजेन्द्र प्रसाद, मजहर उल हक, जे.बी. कृपलानी, नरहरि पारीख, और महादेव देसाई के साथ 1917 में गांधी ने चम्पारण पहुँचकर किसानों के बारे में विस्तृत जानकारी जुटानी शुरू की। गुस्साए जिला अधिकारियों ने उन्हें चम्पारण छोड़ देने का आदेश दिया, किन्तु उन्होंने मुकद्मा और जेल का सामना करने का निर्णय लिया। इसने सरकार को अपना पहला आदेश निरस्त करने पर मजबूर किया और गाँधी की देखरेख में एक समिति का गठन भी किया गया जिसे इस पूरे मामले को देखना था।
(हालांकि गांधीजी की लोकप्रियता और जिस प्रकार वे किसानों को उत्तेजित कर रहे थे, इससे नाराज़ बागान मालिकों ने गांधीजी के विरुद्ध एक ‘‘विषैला आंदोलन‘‘ शुरू किया जिसके तहत वे गांधीजी और उनके सहयोगियों के बारे में दुष्प्रचार करते थे और अफवाहें फैलाते थे। गांधीजी समाचारपत्रों को सूचनाएं और जानकारी भेजते थे जो कभी प्रकाशित ही नहीं की जाती थीं।


जून 12 तक गांधीजी और उनके सहयोगियों द्वारा 8000 से अधिक वक्तव्य दर्ज कराये गए थे, और इनकी उन्होंने एक आधिकारिक रिपोर्ट बनाना शुरू किया। उन्होंने बेतिया और मोतिहारी जैसे विभिन्न स्थानों पर बागान मालिकों और किसानों के साथ अनेक बैठकें कीं। इन बैठकों में लोगों की उपस्थिति 10,000 से 30,000 के बीच थी। 3 अक्टूबर को उन्होंने सरकार को किसानों के पक्ष में एक सर्वसम्मत रिपोर्ट प्रस्तुत की। 18 अक्टूबर को सरकार ने अपना प्रस्ताव प्रकाशित किया, जिसमें अनिवार्य रूप से रिपोर्ट की लगभग सभी सिफारिशें मान्य कर ली गई थीं। 2 नवंबर को श्री मौडे ने चंपारण भूमि विषयक विधेयक प्रस्तुत किया, जो पारित हुआ और चंपारण भूमि विषयक कानून (1918 का बिहार एवं उडीसा अधिनियम प्रथम) बन गया। सरकार ने इन कानूनों को मार्च 1918 में स्वीकार कर लिया)। This content prepared by Civils Tapasya Portal by PT's IAS Academy
B.6 1918 की मिल हड़ताल
1918 में गाँधी ने अहमदाबाद के मिल मालिकों और मजदूरों के बीच चल रहे विवाद में दखल दिया। फरवरी-मार्च 1918 में मिल मजदूरों और मालिकों के बीच, 1917 के प्लेग बोनस को लेकर विवाद चल रहा था। मिल मालिक बोनस नहीं देना चाहते थे जबकि मजदूर अपनी मजदूरी में 50 प्रतिशत बढ़ोतरी चाहते थे। मालिक लोग 20 प्रतिशत बढ़ोतरी के लिए तैयार थे। गाँधी ने श्रमिकों को हड़ताल पर जाने और 35 प्रतिशत बढ़ोतरी की माँग रखने को कहा। पर उन्होनंे श्रमिकों से हड़ताल के दौरान मालिकों के खिलाफ हिंसा न करने की सलाह दी। उन्होंने मजदूरों की मांगों के समर्थन में आमरण उपवास प्रारम्भ कर दिये, जिससे मिल मालिकों पर दबाव पड़ा और चैथे ही दिन वे मजदूरी में 35 प्रतिशत बढ़ोतरी के लिए तैयार हो गये।
B.7 1918 का खेड़ा सत्याग्रह
(गुजरात के खेड़ा जिले में अधिकांश किसानों की अपनी स्वयं के स्वामित्व की जमीन थी, और आर्थिक दृष्टि से वे बिहार के अपने समकक्षों की तुलना में बेहतर ढंग से समृद्ध और संपन्न थे। हालांकि यह जिला गरीबी, अल्प संसाधनों, और मद्यपान और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों और समग्र ब्रिटिश उदासीनता और वर्चस्व से ग्रस्त था। जिले के एक बडे़ भाग में एक भयंकर अकाल हुआ जिसने लगभग संपूर्ण कृषि अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया था। गरीब किसानों के पास अपने स्वयं के निर्वाह योग्य ही अनाज उपलब्ध था। परंतु ब्रिटिश सरकार ने इस बात पर जोर दिया कि किसान न केवल पूर्ण कर का भुगतान करें, बल्कि उस वर्ष से प्रभावी होने वाले 23 प्रतिशत अतिरिक्त कर का भी भुगतान करें। 1918 में जिले को फसल नाश का भी सामना करना पडा।
हालांकि नागरिक समूह ज्ञापन दे रहे थे और अत्यंत उच्च करों के विरुद्ध संपादकीय भी निरंतर प्रकाशित किये जा रहे थे, परंतु फिर भी इन सबका ब्रिटिश सरकार पर कोई असर नहीं हो रहा था। गांधीजी ने सत्याग्रह का प्रस्ताव दिया - अहिंसा और व्यापक नागरिक सविनय अवज्ञा। जबकि यह सख्ती से अहिंसक था, गांधीजी वास्तविक कार्रवाई प्रस्तावित कर रहे थे, एक वास्तविक विद्रोह, जिसे अमल में लाने के लिए पीड़ित और प्रताड़ित भारतीय व्याकुल थे। गांधीजी ने सख्त हिदायत दी थी की न तो बिहार के प्रदर्शनकारी और न ही गुजरात के प्रदर्शनकारी स्वराज या स्वतंत्रता का कोई संकेत देंगे, और न ही इसका प्रचार करेंगे। यह राजनीतिक स्वतंत्रता का मुद्दा नहीं था, बल्कि यह एक भयानक मानवीय आपदा के बीच घोर अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह था। भारत के अन्य भागों से प्रतिभागियों और सहायता को स्वीकार करने के साथ ही गांधीजी ने सख्त हिदायत दे रखी थी कि कोई भी अन्य जिला या प्रांत सरकार के विरुद्ध विद्रोह नहीं करेगा, और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी समर्थन के प्रस्ताव पारित करने के अतिरिक्त किसी भी अन्य तरीके से इसमें शामिल नहीं होगी, ताकि ब्रिटिशों को अत्यधिक दमनकारी उपाय करने और इन विद्रोहों पर राजद्रोह का ठप्पा लगाने से रोका जा सके)।
B.8 गाँधीजी का एक नेता के रूप में विकास
इन अनुभवों से गाँधी लोगों के निकट आये जिनके हितों के लिए वे जीवन भर समर्थन देते रहे। वास्तव में वे पहले भारतीय राष्ट्रवादी नेता थे जो भारत और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रतीक बन गये। हिन्दू-मुस्लिम एकता, छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष और देश में महिलाओं की स्थिति में सुधार कुछ अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे थे जो गाँधी के हृदय के निकट थे। उन्होंने स्वयं अपने उद्देश्य पर बोलते हुए कहाः
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- "मैं एक ऐसे भारत के लिए काम करूँगा जहाँ गरीब से गरीब आदमी भी महसूस करे कि ये उनका देश है, जिसके निर्माण के लिए उनका योगदान महत्वपूर्ण है, एक ऐसा भारत जहाँ लोगों के बीच कोई उच्च या निम्न वर्ग ना हो, एक ऐसा भारत जहां सारे समुदाय सौहार्द के साथ रहें। ऐसे भारत में छूआछूत के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा। महिलाओं के पास भी पुरूषों के समान सारे अधिकार होंगे। ऐसे भारत का निर्माण मेरा स्वप्न है।”
- एक समर्पित हिन्दू होने के बावजूद, गाँधी का सांस्कृतिक व धार्मिक दृष्टिकोण संकीर्ण नहीं था। वे लिखते हैं, ”भारतीय संस्कृति न तो पूर्णतः हिन्दू है, ना मुस्लिम, और ना ही कोई और, यह तो इन सबका सम्मिश्रण है।” वे चाहते थे कि भारतीयों की जड़े अपनी संस्कृति में गहरे तक पैठी हों तथा साथ ही वे विश्व की दूसरी संस्कृतियों का भी सर्वोत्तम ग्रहण करें।
- वे कहते हैंः ”मैं चाहता हूँ कि सभी संस्कृतियाँ मेरे घर में स्वतंत्रतापूर्वक रहें। किन्तु मैं अपने आप को किसी से भी भटका दिया जाना नहीं चाहूंगा। मैं दूसरे के घर में एक पराया, भिखारी या गुलाम बनकर रहने से इंकार करता हूँ।”
B.9 रौलेट एक्ट के विरुद्ध 1919 का सत्याग्रह

दूसरे राष्ट्रवादी नेताओं के साथ गाँधीजी ने भी रोलैट एक्ट का विरोध किया। फरवरी 1919 में उन्होंने सत्याग्रह सभा की स्थापना की जिसके सदस्यों ने यह शपथ ली कि वे इस कानून का विरोध करेंगे और अपनी गिरफ्तारियां देंगे। यह संघर्ष का एक नया तरीका था। अभी तक नरम दल या गरम दल के नेतृत्व में राष्ट्रवादी आंदोलन प्रदर्षनों के रूप में जारी रखा था। बड़ी सभाएं, प्रदर्शन, सरकार से सहयोग से इंकार, विदेशी कपड़ों और स्कूलों का बहिष्कार या व्यक्तिगत उग्रवाद, राजनीतिक काम के तरीके थे। सत्याग्रह ने आंदोलन को एक नई उंचाई प्रदान की। अब राष्ट्रवादी केवल उत्तेजित होने और अपने विचारों को शब्दों में अभिव्यक्त करने के अतिरिक्त कार्य भी कर सकते थे।
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- यह किसानों, कारीगरों, और शहरी गरीबों को अंग्रेज सरकार के विरुद्ध संघर्ष में जोड़ने की शुरूआत थी।
- गाँधीजी ने राष्ट्रवादीयों से गावों की और रूख करने को कहा। उन्होंने राष्ट्रवाद का रूख आम आदमी की ओर मोड़ दिया और खादी को इसका प्रतीक चिन्ह बना दिया, जो शीघ्र ही राष्ट्रवादियों का गणवेश बन गयी।
- उन्होंने श्रम और आत्मनिर्भरता पर जोर देने के लिए चरखा चलाने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि भारत की मुक्ति तभी होगी जब जन समूह नींद से जागकर राजनीति में सक्रिय होगा।
- गाँधी के आव्हान पर लोग बड़ी संख्या में आंदोलनों में शामिल हुये। This content prepared by Civils Tapasya Portal by PT's IAS Academy
मार्च और अप्रैल 1919 में भारत में बड़ा राजनैतिक आंदोलन हुआ। लगभग सारे ही देश में हड़ताल, जुलूस धरने एवं प्रदर्शन हुये। हिन्दू-मूस्लिम एकता का स्वर गूँजने लगा। पूरा देश ही राष्ट्रवाद की धारा में बहने लगा। अब भारतीय विदेशी शासन के सामने और ज्यादा झुकने को तैयार नहीं थे।
B.10 1919 का जलियांवाला बाग हत्याकांड

जैसे ही पंजाब की घटना की खबर पूरे देश में फैली, दहशत की एक लहर एक भय की लहर दौड़ गयी। लोगों ने साम्राज्यवादी और विदेशी शासन का क्रूरतम और बदसूरत चेहरा देखा। भारतीयों ने पहली बार अंग्रेजों की नग्न महत्वकांक्षा को देखा जिसने उनकी शर्महीनता और पाशविकता को सामने ला दिया था।
जनभावना को प्रकट करते हुए महान कवि और मानवतावादी रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी नाईटहुड की उपाधि लौटा दी और घोषणा कीः
”समय आ गया है जब, सम्मान के तमगे दरअसर हमें शर्मसार कर रहे हैं, जहाँ तक मेरा सवाल है मैं स्वयं को सारे विशेषाधिकारों से तोड़कर मेरे देशवासियों के साथ खड़ा रहना चाहता हूँ जो तथाकथित रूप से महत्वहीन माने जाते हैं, और अमानवीय अत्याचार सहने को मजबूर हैं ।”
”समय आ गया है जब, सम्मान के तमगे दरअसर हमें शर्मसार कर रहे हैं, जहाँ तक मेरा सवाल है मैं स्वयं को सारे विशेषाधिकारों से तोड़कर मेरे देशवासियों के साथ खड़ा रहना चाहता हूँ जो तथाकथित रूप से महत्वहीन माने जाते हैं, और अमानवीय अत्याचार सहने को मजबूर हैं ।”
भारत और भारतीय लोग स्वतंत्रता आन्दोलन के अन्तिम दौर में प्रवेश कर चुके थे। शताब्दियों के अत्याचारों और शोषण के पश्चात, अंग्रेजों को गाँधीवादी उपचार पद्धति का सामना करना था, जो उन्हें दो दशक बाद इस उपमहाद्वीप से हमेशा के लिए खदेड़ देने वाली थी।
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C. खिलाफत और असहयोग आंदोलन
C.1 प्रस्तावना

पढ़े-लिखे मुसलमानों की युवा पीढ़ी और परम्परागत

अमृतसर में ऐसी राजनीतिक एकता सरकारी अत्याचारों के कारण हुई। हिन्दू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर साथ-साथ आगे बढ़े और एक साथ खाना-पीना भी किया, जबकि सामान्यतः एक हिन्दू, मुसलमानों के हाथ से पानी नहीं पीता था। इस वातावरण में, मुसलमानों के बीच राष्ट्रवादी प्रवृत्ति ने खिलाफत आन्दोलन का रूप ले लिया।
C.2 खिलाफत आन्दोलन

C.3 खिलाफत कांग्रेस, दिल्ली, (1919)
नवम्बर 1919 में अखिल भारतीय खिलाफत सभा ने निर्णय लिया कि यदि उनकी माँगंे नहीं मानी गयी तो वे सरकार से किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं करेंगे। महात्मा गाँधी इस सभा में विशष रूप से आंमत्रित थे। महात्मा गाँधी और लोकमान्य तिलक जैसे कांग्रेसी नेताओं ने इस आन्दोलन को हिन्दू-मुस्लिम एकता और मुसलमानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के एक स्वर्णिम अवसर के रूप में देखा। उन्होंने महसूस किया कि समाज के विभिन्न वर्ग - हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई, पँूजीपति, श्रमिक, किसान, कारीगर, महिलाएँ और युवा, जनजातीय समूह और सभी क्षेत्रों के लोग - अपने विभिन्न हितों के लिए लड़ते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा से जुडेंगे। गाँधीजी ने खिलाफत आन्दोलन को ‘‘हिन्दू-मुस्लिम एकता के ऐसे अवसर के रूप में देखा जो सौ सालों में भी सामने नहीं आयेगा।’’
C.4 असहयोग आन्दोलन की गाँधी की घोषणा

कांग्रेस में भी असन्तोष उबल रहा था। सरकार ने रौलट एक्ट को वापस लेने से, पंजाब में हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध संषोधन करने से, या राष्ट्रवादियों की स्वराज्य देने की माँग को मानने से इंकार कर दिया था। इन परिस्थितियों में कांग्रेस भी असहयोग आन्दोलन को मानने को तैयार हो गयी। This content prepared by Civils Tapasya Portal by PT's IAS Academy

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- बाद में सरकारी नौकरियों से त्याग पत्र और सामूहिक रुप से अवज्ञा तथा कर देने से इंकार कर देना भी इसमें शामिल कर लिया गया।
- कांग्रेस ने चुनाव का बहिष्कार किया और बड़ी संख्या में मतदाताओं ने भी इसका बहिष्कार किया। यह निर्णय बहुत शांतिपूर्ण तरीके से प्रभावी रहा और कांग्रेस के दिसंबर 1920 के नागपुर अधिवेशन में इसकी अधिकृत घोषणा की गई।
- नागपुर में गाँधीजी ने घोषणा की कि ‘‘अंग्रेजों को सावधान रहना चाहिए’’ कि यदि वे न्याय नहीं करेंगे तो प्रत्येक भारतीय का यह बंधनकारी कर्तव्य होगा कि वे साम्राज्य को नष्ट कर दे।’’
- नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस के संविधान में भी संशोधन किया गया। प्रांतीय कांग्रेसी समितियों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर किया गया।
- अब कांग्रेस का नेतृत्व अध्यक्ष और सचिवों सहित एक 15 सदस्यीय समिति के हाथों में था। इसने कांग्रेस को एक संवैधानिक राजनीतिक संगठन के रूप में सक्षम बनाया और अपने प्रस्तावों को लागू करवाने के लिए उसके पास एक सुचारू तंत्र भी था।
- अब कांग्रेस को गाँव, कस्बों मोहल्लों तक अपनी पहुँच बनानी थी। इसलिए कांग्रेस ने ग्रामीणों और शहरी गरीबों को अपना सदस्य बनाने के लिए सदस्यता शुल्क चार आना (वर्तमान के 25 पैसे) कर दिया।
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C.5 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विकास


C.6 सविनय अवज्ञा की शुरूआत

सरकार ने पुनः दमन की नीति अपनाई। कांग्रेस और खिलाफत आंदोलन की गतिविधियों तथा हिन्दू और मुस्लिमों को निचले स्तर पर एक करने के काम अवैधानिक घोषित किये गये। 1921 के अंत तक गांधीजी को छोड़कर लगभग सभी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय नेताओं को जेल भेज दिया गया। नवम्बर 1921 में वेल्स के राजकुमार, जो कि ब्रिटिश सिंहासन के उत्तराधिकारी थे, की भारत यात्रा के दौरान उनके सामने बड़े प्रदर्शन किये गये। सरकार ने उन्हें भारतीय लोगों और राजवाड़ों की वफादारी को प्रोत्साहित करने के लिए भारत बुलाया था। बम्बई में प्रदर्शन को दबाने के लिए 53 लोगों को मार दिया गया और लगभग 400 लोगों को घायल कर दिया गया। दिसंबर 1921 में कांगे्रस के अहमदाबाद के वार्षिक अधिवेशन में घोषित किया गया कि ‘‘अहिंसा और असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम पूर्ण उत्साह के साथ तब तक जारी रहेंगे जब तक कि पंजाब और खिलाफत में किये गये अत्याचार दूर न हों और स्वराज्य की स्थापना न हो जाये।’’
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- प्रस्ताव में सभी भारतीयों और विशेषकर छात्रों से आह्वान किया गया कि ‘‘शांतिपूर्वक और बिना किसी प्रदर्शन के सारे स्वयं सेवक अपनी गिरफ्तारियाँ देंगे’’। ऐसे सभी सत्याग्रहियों को शपथ दिलाई गई की वे अपने वचन और कर्म से अहिंसक रहेंगे। हिन्दू, मुसलमानों, सिक्खों, पारसीयों, ईसाईयों और यहूदियों में एकता स्थापित करने के लिये उन्हें स्वदेशी अपनाने और केवल खादी पहनने की सलाह दी गई।
- हिन्दू स्वयं सेवकों को अस्पृष्यता के विरुद्ध भी सक्रिय भागीदारी करनी थी। प्रस्ताव पारित कर लोगों से कहा गया कि जब भी संभव हो अहिंसक रूप से व्यक्तिगत या सामूहिक अवज्ञा आंदोलन में भाग लें।
लोग अब उत्सुकतापूर्वक अगले आंदोलन की प्रतीक्षा कर रहे थे। यह आंदोलन लोगों में गहरे तक पैठ चुका था। उ.प्र. और बंगाल में हजारों किसान असहयोग आंदोलन में भाग ले रहे थे। उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में किसानों ने जमींदारों को कर देने से इंकार कर दिया था। पंजाब मंे सिक्ख अकाली आंदोलन के नाम से गुरूद्वारों से भ्रष्ट महंतों को हटाने के लिए भी अहिंसक आंदोलन चला रहे थे। आसाम में चाय बगानों के मजदूर भी हड़ताल पर थे। मिदनापुर के किसानों ने कर देने से इंकार कर दिया था। दुग्गीराला गोपालकृष्णैया के नेतृत्व में गुण्टूर जिले में एक शक्तिशाली आंदोलन चला जिसमें चिराला नाम के कस्बे की सारी जनता ने नगरपालिका कर देने से इंकार करते हुए शहर छोड़ दिया। पेड्डानाडीपडू के सारे अधिकारियों ने इस्तीफा दे दिया। उत्तरी केरल के मालाबार, ओपला, के मुस्लिम किसानों ने शक्तिशाली जमींदारों के विरुद्ध आंदोलन चलाया। फरवरी 1919 में वायसराय ने भारत सचिव को पत्र लिखते हुए कहा, ‘‘शहरों एवं कस्बों के निचले वर्ग असहयोग आंदोलन से गंभीर रूप से प्रभावित हुए हैं...... कुछ हिस्सों, विशेषकर आसामघाटी, बिहार उड़ीसा और बंगाल प्रांत के किसान भी आंदोलन से प्रभावित हुये’’। फरवरी 1922 को महात्मा गाँधी ने घोषित किया कि यदि 7 दिनों के भीतर सारे राजनैतिक बंदियों को छोड़ा नहीं गया और प्रेस की स्वतंत्रता बहाल नहीं की गई तो वह सामूहिक असहयोग आंदोलन की शुरुआत करेंगे जिसमें करों का भुगतान नहीं करना भी शामिल होगा।
C.7 असहयोग आंदोलन को स्थगित करना


‘‘एक ऐसे समय जब लोगों का उत्साह निर्णायक मोड़ पर था पीछे हटने का आदेश सुनना एक राष्ट्रीय आपदा से कम नहीं था। महात्मा गाँधी के मुख्य सलाहकार देशबंधु दास, पंडित मोतीलाल नेहरू और लाला लाजपतराय जो इस समय जेल में थे, का भी यही लोकप्रिय अभिमत था। मैं उस समय देशबंधु के साथ था और मैने देखा कि वे महात्मा गांधी के इस निर्णय से बहुत क्रोधित और दुःखी थे।’’
कई और युवा नेताओं जैसे कि जवाहरलाल नेहरू का भी यही अभिमत था। किंतु जनता और नेता दोनों को ही गांधीजी में विश्वास था और सार्वजनिक रूप से उनकी अवमानना कोई नहीं करना चाहता था। सभी ने उनका निर्णय बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लिया। पहला असहयोग और अवज्ञा आंदोलन अब समाप्त हो गया।
C.8 महात्मा गाँधी पर मुकदमा और उन्हें जेल भेजा जाना

ब्रिटिश शासन के समर्थक होने से उसके तीव्र आलोचक होने तक के अपने राजनीतिक विकास के बारे में विस्तार से बताते हुए वे कहते हैंः
‘‘मैं बहुत ही अनिच्छापूर्वक इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि अंग्रेज सरकार ने राजनीतिक और आर्थिक रूप से भारत को अब तक के सबसे कमजो स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है। शस्त्रहीन भारत के पास किसी भी अत्याचार के विरुद्ध प्रतिरोध की कोई शक्ति नहीं है। वह इतना निर्धन हो चुका है कि उसके पास अकाल से लड़ने की बहुत थोड़ी शक्ति बची है। कस्बाई लोग ये भी नहीं जानते कि कैसे आधे-भूखे भारतीय मौत की ओर बढ़ रहे हैं। वो तो इसके बारे में भी नहीं जानते कि उन्हें विदेशी शासकों से काम के बदले दिया जाने वाला, थोड़ा बहुत आराम भी वास्तव में जनता से चूसा जाता है। वो इस बात को नहीं जान रहे हैं कि कानून द्वारा स्थापित अंग्रेज सरकार आम लोगों का शोषण कर रहीं है।
कोई भी तर्क या आंकड़ों की जादूगरी, कई गावों में नग्न आखों से दिखने वाले कंकालों की व्याख्या नहीं कर सकती है। मेरी नजर में इस तरह कानून के शासन ने, जानबूझकर या अनजाने में, शोषकों के पक्ष में मदद की है। उससे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि अंग्रेज शासन और उसके भारतीय सहयोगी, यह जानते हैं कि वे इस अपराध जिसे मैने बताने की कोशिश की है, में शामिल हंै। मैं संतुश्ट हूँ कि कई अंग्रेज और भारतीय अधिकारी अधिकारी विश्वास करते हैं कि संसार के सबसे अच्छे प्रशासनिक तंत्र में कार्य कर रहे हैं, और इस कारण भारत धीमे ही सही, उन्नति कर रहा है। वे नहीं जानते हैं कि एक ओर जहां, सूक्ष्म किन्तु प्रभावी आंतकी तंत्र और शक्ति का संगठित प्रदर्शन है, वहीं दूसरी ओर विरोध और आत्मरक्षा के सभी अधिकारों से वंचना ने लोगों में शक्तिहीन होने का भाव विकसित कर उनमें गलत को स्वीकारने की आदत डाल दी है।’’
निश्कर्श रूप में गाँधीजी ने अपना विष्वास व्यक्त किया कि ‘‘बुराई के साथ असहयोग, वैसा ही एक कर्तव्य है जैसा कि अच्छाई के साथ सहयोग।‘‘ न्यायाधीष ने महसूस किया कि वह गाँधीजी को 1908 वाले लोकमान्य तिलक की सज़ा सुना रहे हैं। This content prepared by Civils Tapasya Portal by PT's IAS Academy
C.9 तुर्की में कमाल पाशा का उदय
शीघ्र ही खिलाफत के मुद्दे ने अपना अर्थ खो दिया। नवम्बर 1922 में तुर्की के लोगों ने मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में सुल्तान कोे अपदस्थ कर दिया। कमाल पाशा ने तुर्की को आधुनिक और धर्म निरपेक्ष राज्य बनाने के लिए कई कदम उठाये। उसने खिलाफत (खलीफा की पद्धति) को समाप्त कर दिया और संविधान से इस्लाम को अलग करते हुए राज्य को धर्म से अलग कर दिया। उसने शिक्षा का राष्ट्रीयकरण किया, महिलाओं को अधिकार सम्पन्न बनाया, यूरोपीय आधार पर कानूनों का निर्माण किया और कृषि के विकास तथा आधुनिक उद्योगों की स्थापना पर जोर दिया। इन सारे कदमों ने खिलाफत आन्दोलन को समाप्त कर दिया।
खिलाफत आन्दोलन ने असहयोग आन्दोलन के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह शहरी मुसलमानों को राष्ट्रीय आन्दोलन के निकट लाया और उस उत्साह का संचरण किया जो उन दिनों देश में फिजाओं में था। कई इतिहासकारों ने इसका इस आधार पर कि इससे धर्म और राजनीति आपस में मिल गये, विरोध किया। इसके परिणामस्वरूप राजनीति में धार्मिक जागृति फैल गयी और दीर्घावधि प्रभावों के रूप में इससे साम्प्रदायिक शक्तियाँ मजबूत हुईं। किसी हद तक यह सही भी है। निश्चित रूप से, राष्ट्रीय आन्दोलन में किसी ऐसी मांग को उठाना जो केवल मुसलमानों को संतुष्ट करे, कुछ भी गलत नहीं था।
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- यह अवश्यंभावी था कि समाज के विभिन्न वर्ग स्वतंत्रता के अर्थ को समझते हुए उनकी जरूरतों और अनुभवों को समझंे।
- यद्यपि राष्ट्रवादी नेतृत्व मुसलमानों की राजनीतिक- धार्मिक भावनाओं को धर्मनिरपेक्ष स्वरूप देने में कुछ हद असफल हो गया था।
- भारत में मुसलमान खिलाफत आंदोलन के जरिए उपनिवेशवाद-विरोधी भावनाएं ही प्रकट कर रहे थे।
- जब 1924 में कमाल पाशा ने खलीफा प्रथा ही समाप्त कर दी, तब कोई विरोध भारत में नहीं हुआ।
C.10 दीर्घावधि प्रभाव
यहां यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलन असफल हो गये थे तो भी इससे राष्ट्रीय आंदोलन को कई तरह से मदद मिली राष्ट्रवादी भावनायंे और राष्ट्रीय आंदोलन अब देश के कोने-कोने में फैलने लगा। लाखों किसान, कारीगर और शहरी गरीब राष्टीªय आंदोलन के छत्र तले जुड़े। भारतीय समाज के सभी वर्ग राजनीति को समझने लगे। महिलाओं को भी आंदोलन से जोड़ा गया। इस तरह लाखों लोगों के राजनैतिकरण और सक्रिय भागीदारी के कारण राष्ट्रवादी आंदोलन का चरित्र क्रांतिकारी हो गया।
अंग्रेज़ शासन इस द्वैत मत पर आधारित था कि अंगे्रज़ लोग भारतीयों की भलाई के लिए भारत पर शासन कर रहे हैं, और इसे हटाया जाना संभव नहीं था। जैसा कि हमने प्रारंभ में देखा कि पहले मत को उदारवादी राष्ट्रीय नेताओं द्वारा चुनोैती दी गई जिन्होंने उपनिवेशिक शासन की आर्थिक आधार पर आलोचना की, अब राष्ट्रीय आन्दोलन के लोकव्यापी स्वरूप के दिनों में यह आलोचना युवा आंदोलनकारियों के भाषणों, नुक्कड़ नाटकों, गीतों, प्रभात फेरियों और समाचार पत्रों के द्वारा आम लोगों तक फैला।
अंगे्रज़ शासन के अजेय होने के तर्क को सत्याग्रह और जन आंदोलन द्वारा चुनौती दी गई। जैसा की जवाहरलाल नेहरू ने ‘‘भारत एक खोज’’ में लिखा हैः
‘‘गाँधीजी की शिक्षाओं का सार निर्भयता था ..... न केवल शारीरिक साहस बल्कि मानसिक निर्भयता ..... अंग्रेज़ शासन का भारत में प्रभाव भय, अत्याचार पर आधारित था। सेना का भय, पुलिस का भय, पूरे देश में गुप्तचरों का जाल, सरकारी अधिकारियों का डर, दमनकारी कानूनों का भय, जमींदारों का डर, साहूकारों का डर, बेरोजगारी और भूखमरी का डर, जो हमेशा दहलीज पर ही रहती थी। गांधीजी की दृढ़ और निश्चित ध्वनि-ड़रांे मत, इन्हीं सारे ड़रांे के विरूद्ध थी।’’
असहयोग आंदोलन का बड़ा प्रभाव यह था कि भारतीयों के अंदर से भय समाप्त हुआ। अंग्रेजों की पाषविक शक्ति अब भारतीयों को भयभीत नहीं करती थी। उन्होंने पूर्ण आत्मविश्वास और उर्जा हासिल कर ली थी जिसे कोई हिला नहीं सकता था। इसकी घोषणा करते हुए गाँधीजी ने कहा कि, ‘‘संघर्ष जिसका प्रारम्भ 1920 से हुआ का अन्त निश्चित है, चाहे एक माह, एक साल या कई सालों तक यह चले, किंतु जीत सुनिश्चित है।’’
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