न केवल १८५७ का विद्रोह भारतीय आधुनिक इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय था, वरन अनेकों अन्य क्रांतिकारियों ने भी अलग-अलग समय पर अंग्रेज़ शासन को उखाड़ फेंकने हेतु बहुत कुछ किया। आज हम भारत के अन्य विद्रोहों की बात करेंगे जिनमें शामिल हैं मुंडा विद्रोह, नील विद्रोह, संथाल विद्रोह, सन्यासी विद्रोह एवं वेल्लोर की बगावत आदि।
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A. मुण्ड़ा विद्रोह
A.1 प्रस्तावना

मुण्ड़ा विद्रोह इस उपमहाद्वीप में 19वीं शताब्दी के महत्वपूर्ण आदिवासी विद्रोहों में से एक है। 1899-1900 में इस आंदोेलन का नेतृत्व रांची से दक्षिण में बिरसा मुण्ड़ा ने किया। इस उलगुलन (महा-विद्रोह) का उद्देश्य मुण्ड़ा राज स्थापित करना था। परम्परागत रुप से मुण्डा जंगल में खुंटकट्टीदार कर देकर खुश थे। किन्तु 19वीं शताब्दी में इस प्रथा के स्थान पर जागीरदार और ठेकेदार व्यापारियों के रुप में आ गये।
ज़मीन से अलगाव की यह प्रक्रिया अंग्रेज़ों द्वारा शुरु नहीं हुई किन्तु अंग्रेजी शासन ने गैर आदिवासी लोगों को वनों में रहने की और व्यापार करने की इस प्रक्रिया को गति दी। बैठ बैगारी (या जबरन श्रम) के उदाहरण नाटकीय तरीके से बढ़ने लगे। इससे भी ज्यादा बेईमान ठेकेदारोें ने पूरे क्षेत्र को बंधुवा मजदूरों का भर्ती क्षेत्र बनाकर रख दिया। ब्रिटिश शासन के साथ जो एक अंतर मुख्य रुप से जुड़ा था वह था लुथंेरनर्, एंिग्लकन और केथोलिक मिशनों का वहाँ सक्रिय होना। मिशनरी गतिविधियों के कारण शिक्षा का विकास हुआ जिससे कि वहाँ के आदिवासी अपने अधिकारों को लेकर ज्यादा संगठित और जागृत हुए। ईसाई मुण्ड़ा और गैर ईसाई मुण्डा के बीच की समाजिक दरार ने मुण्ड़ा समुदाय को कमजोर कर दिया। कृशकों का असंतोश और इसाईयत के विकास ने आंदोलन को नई उर्जा प्रदान की। वास्तव में इस आंदोेलन का उद्देश्य आदिवासी समाज का पुनर्निमाण करना था जो उपनिवेशिक राज के अधीन बिखर गया था। This content prepared by Civils Tapasya Portal by PT's IAS Academy

A.2 बिरसा मुण्ड़ा
बिरसा मुण्ड़ा (1874-1900), एक कृषि मजदूर का पुत्र था जिसने इसाई मिशन के अधीन कुछ शिक्षा ग्रहण की थी। बाद में उस पर वैश्णव धर्म का प्रभाव था और उसने 1893-’94 मे गाँव की बंजर भूमि को वन विभाग द्वारा अधिग्रहित करने के विरुद्ध आंदोलन किया था। 1895 में बिरसा ने यह कहते हुए कि उसे ईश्वर के समान दिव्य दृश्टि और अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त हैं, स्वयं को मसीहा घोषित कर दिया। हजारों लोग बिरसा मुण्डा की भविश्यवाणियों को सुनने आने लगे। इस नये मसीहा ने परम्परागत आदिवासी रीतिरिवाजांे, धार्मिक विश्वासों और तौर तरीकांे का विरोध किया। उसने मुण्ड़ाआंे से अंधविश्वासों से लड़ने, पशुबली रोकने, नशा नहीं करने, पवित्र यज्ञोपवित धारण करने और आदिवासी परम्परा के अनुसार शरणा को बचाने को कहा। शरणा साल का एक पवित्र वृक्ष माना जाता है जहाँ देवी अन्ना निवास करती हैं। एक सुधारवादी आंदोलन के लिए आवश्यक था कि मुण्डा समुदाय सारे विदेशी प्रभावों से मुक्त हो और अपनी पूर्ववर्ती विशेशताओं को पुनः प्राप्त कर ले। ईसाईयत ने इस आंदोलन को प्रभावित किया और साथ ही इसने हिन्दू और ईसाई विचारधारा का उपयोग मुण्ड़ा विचारधारा को बनाने में किया।
A.3 मुण्ड़ा विद्रोह के विभिन्न पक्ष

बिरसा को 1895 में अंग्रेज़ों ने किसी शड़यंत्र के भय से जेल में डाल दिया। किन्तु वह जेल से एक आक्रामक नेता के रुप में बाहर आया। 1898-’99 में जंगल में श्रंृखलाबद्ध रुप से रात्रिकालीन सभाओं में, बिरसा ने ठेकेदारों, जागीरदारों, सरकारी हकीमों और ईसाईयों को मारने का आव्हान किया।

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1902-’10 के बीच सरकार नें सर्वे और भूमि सुधार कर मुण्ड़ा लोगों के गुस्से को शांत करने की कोशिश की। छोटा नागपुर अधिनियम 1908 के द्वारा उनके खुंटकट्टी अधिकार लौटाये गये और बैठ-बेगारी प्रथा को समाप्त कर दिया गया। छोटा नागपुर क्षेत्र के आदिवासियों को भी उनकी जमीन का कानूनी संरक्षण का अधिकार दिया गया। This content prepared by Civils Tapasya Portal by PT's IAS Academy
B. नील विद्रोह

1833 के अधिनियम द्वारा नील व्यापारियों को किसानों का शोशण करने का अधिकार मिल गया था। यहाँ तक कि जमींदारों, व्यापारियों और दूसरे प्रभावशाली लोगों ने भी उनका समर्थन किया था। इन्हीं गम्भीर अत्याचारों के खिलाफ किसानों ने विद्रोह किया था। चूंकि किसानों के पास कोई हथियार नहीं थे इसलिए यह पूर्णतः अहिंसक विद्रोह था।
विद्रोह की शुरुआत नादिया से हुई, जहाँ बिश्णुचरण बिसवास और दिगम्बर बिसवास ने नील व्यापारियों के खिलाफ आवाज़ उठायी। यह जंगल मेें आग की तरह मुर्षीदाबाद, बीरभूम, पटना, खुलना, नरैल आदि जगहों पर फैल गया और नील के व्यापारियों को जनता के बीच मुकदमे चलाकर सज़ा दी गई। नील के गोदाम जला दिये गये। कई व्यापारी पकड़े जाने के डर से भाग गये। इस विद्रोह का निशाना जमींदार भी बने। इस विद्रोह को सेना और पुलिस द्वारा निर्दयतापूर्वक कुचल दिया गया और बड़ी संख्या में किसान मारे गये। केवल कुछ जमींदारो जैसे नरैल के रामरतन मुलिक ने किसानों का समर्थन किया।
B.1 नील विद्रोह के प्रभाव

B.2 सांस्कृतिक प्रभाव
1859 में दीनबंधु मित्रा ने विद्रोह पर आधारित ’नील दर्पण’ नामक नाटक लिखा। इसे माईकल मधुसूदन दत्त द्वारा अंग्रेजी में अनुवादित किया गया और रेव. जेम्स लाँग (1814-1887) जो एक मानवतावादी शिक्षाविद् और भारत में मिशनरी थे, द्वारा प्रकाशित किया गया। इसने इंग्लैण्ड में लोगों का ध्यान खींचा जहाँ लोग अपने देशवासियों का वहशीपन देखकर भौंचक्के रह गये। ब्रिटिश सरकार ने रेव. लाँंग पर मुकदमा चलाया और उन्हें सजा भी दी गई। काली प्रसन्न सिंहा ने उन पर लगाये गये दण्ड का भुगतान किया।
यह पहला व्यवसायिक नाटक था जिसे कोलकत्ता के नेशनल थियेटर में मंचित किया गया।
C. संथाल विद्रोह


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D. सन्यासी विद्रोह

यह विद्रोह राज्य के उत्तर पश्चिम के जलपाई गुढ़ी जंगलों के मुर्षीदाबाद और बैेेकुण्ठपुर तक सीमित था।
बड़ी संख्या में सन्यासी उत्तर भारत से बंगाल के विभिन्न हिस्सों, तथा उत्तर पूर्व में असम तक यात्रा करते थे। इस रास्ते में उनका स्थानीय गाँव प्रमुखों और जमीदारों से सम्पर्क होता था एवं उन्हें पैसा इत्यादि मिलता था। जैसे ही दीवानी के अधिकार ईस्ट इण्यिा कम्पनी के हाथों गये उनकी करों की माँग बढ़ने लगी जो कि स्थानीय जमींदार और गाँव प्रमुख देते गये एवं इस प्रकार वे सन्यासियों को मदद करने योग्य नहीं रहे। फसलों की बर्बादी और अकाल जिसमें लगभग 10 लाख लोग मारे गये, इन घटनाओं ने समस्या को और ज्यादा गंभीर बना दिया था (इसके कारण बड़ी मात्रा में कृषिभूमि बंजर हो गई थी)।
1771, में लगभग 150 सन्यासियों को बिना किसी कारण के अंग्रेजों ने मौत के घाट उतार दिया। इस कारण, रंगपुर के नतोर, जो अब बांग्लादेश में है, में कड़ी हिंसक प्रतिक्रिया हुई। कुछ इतिहासकारों का मत है कि इस आंदोलन को लोकप्रिय समर्थन नहीं मिला इसलिए इस विद्रोह को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाना चाहिए।

अकाल और उसके आने वाले वर्शोंं में कई संघर्ष हुए; किन्तु ये संघर्ष 1802 तक छुटपुट ही हुए। 18वीं शताब्दी के अन्तिम तीन दशकों में विद्रोह सारे प्रान्त में फैल गये। कम्पनी की सेना ने सन्यासियों और फकीरों को प्रान्त में न घुसने देने की कोशिश की या उन्हें पैसा इकट्ठा नहीं करने दिया गया। यहाँ यह भी देखा गया कि इन संघर्षों में कम्पनी की सेना को हमेशा जीत नहीं मिलती थी। बीरभूम और मिदनापुर जिलों के दूर दराज के घने वन क्षेत्रों में कम्पनी की पकड़ कमजोर थी, जिसके परिणामस्वरुप नागा सन्यासियों के साथ संघर्षों में उन्हे कई बार बड़े नुकसान उठाने पड़ते थे।
सन्यासी विद्रोह उस श्रंष्खला के आरम्भिक विद्रोह थे जिनका सामना अंग्रेजों को बंगाल प्रान्त के पश्चिमी जिलों, जिसमें आज के बिहार, ओड़िशा और पश्चिम बंगाल शामिल थे, में करना पड़ा। मिदनापुर का चुआर विद्रोह 1798-’99 में हुआ, मिदनापुर में ही लिंक विद्रोह 1806 से 1816 तक चला और संथाल विद्रोह ने 1855-’56 में अंगे्रज़ों के लिए भय खड़ा किया।

E. वेल्लोर-विद्रोह

1857 के विद्रोह के समान ही इस विद्रोह का भी मूल कारण धार्मिक ही था। 1805 में सिपाहियों का ड्रेस कोड़ बदला गया था। नए ड्रेस कोड़ के अनुसार हिन्दू सैनिकों को उनके मस्तक पर किसी भी प्रकार के धार्मिक चिन्हों का उपयोग नहीं करने दिया गया और मुसलमानों को उनकी दाढ़ी और मूंछें साफ करने को कहा गया।
मद्रास के कमाण्डर-इन चीफ (सेना प्रमुख) जनरल सर जान क्रेडाॅक ने सारे सिपाहियों के लिए पगड़ी के स्थान पर गोल-टोपी पहनना अनिवार्य घोषित कर दिया जो मुख्यतः यूरोप और ईसाईयत से संबंध रखती थी। हिन्दू और मुस्लिम दोनांे ही इससे नाराज हुए। अफवाहें यह भी थी कि यह तो उनके ईसाईकरण की शुरुआत थी। इसने सिपाहियों को और ज्यादा क्रोधित किया।
दूसरी ओर अंग्रेज सोच रहे थे कि ऐसा करके वे सैनिकों को ज्यादा अनुशासित व आकर्शक बना पायेंगे। मई 1806 में जब कुछ सैनिकों ने उनकी यूनिफाॅर्म में परिवर्तन का विरोध किया तो उन्हें सेन्ट जाॅर्ज किले में ड़ालकर प्रत्येक को 90 कोड़े मारने की सजा दी गई तथा सेना से निश्कासित कर दिया गया। 19 दूसरे सिपाहियों को जिन्होंने विद्रोह किया था को 50 कोड़े की सजा के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी से माफी मांगने को कहा गया। इन विद्रोहों को बाद में स्वर्गीय टीपू सुल्तान के बेटों ने भी उकसाया, जो स्वंय भी अंग्रेेजों के खिलाफ सिपाहियों की मदद कर रहे थे।

इसी दौरान, विद्रोहियों ने टीपू सुल्तान के बेटे फतेह हैदर को अपना नया सुल्तान घोषित कर टाइगर (बाघ) के निशान वाला झण्डा किले पर लहरा दिया। इस विद्रोह को अंततः कर्नल गिलेस्पी ने खत्म कर दिया। 800 भारतीय सैनिक इस लड़ाई में मारे गये और 600 सैनिकों को वेल्लोर व त्रिची में कैद कर दिया गया। कुछ विद्रोहियों को गोली मारकर और कुछ को फाँसी देकर मौत के घाट उतार दिया गया और इस प्रकार इस विद्रोह का अंत हुआ।
टीपू सुल्तान के बेटे को कोलकाता (तब कलकत्ता) भेज दिया गया। कमाण्डर-इन-चीफ और गर्वनर को वापस बुला लिया गया। साथ ही सिपाहियों के साथ धार्मिक हस्तक्षेप भी दूर कर दिया गया और भारतीय सिपाहियों को कोड़े मारने की सजा भी बंद की गई।

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